काम वाली बाई

छोड़ते ही बिस्तर का साथ
बेचैन नजरें बुहारने लगती हैं 
उसकी पदचाप 

तभी भोर की किरनों के साथ
थपथपा देती है वो मेरे
मन का द्वार 

और एक सुखद अहसास  
थमा जाता है मुझे चैनो-करार  

उसकी चीते से भी तेज नजर 
भांप लेती है घर का एक-एक कोना 
घड़ी की टिक-टिक से भी तेज हाँथ
धुरी के चक्र को छोड़ पीछे 
समय की गति को भी दे देते हैं मात

काम खत्म हो गया मेमसाब 
कहकर वो फुर्र से हो जाती है 
आँखों से ओझल 

और मैं चाय की चुस्कियों के साथ 
निचोड़कर ख़बरों का संसार 
सोचती रह जाती हूँ 

उसके आधे खाली पेट में 
आधे ढ़के शरीर में 
कहाँ से आ जाता है इतना आत्मबल 

जो दिखाने भी नहीं देता 
उसकी जिंदगी के छाले 
आत्मा पर चोटों के निशान 
और मुफ़लसी की मार

मैं जानती हूँ वो मुझसे भी ज्यादा
संतुष्ट क्यों है 
क्योंकि वह भविष्य के अंगार से 
अतृप्त इच्छाओं को न तपाती है
 
वह खुली आँखों से चुनकर मोती 
वर्तमान में पिरोती है 
और आत्म-संतोष की फुहार से
अन्तःमन को भिगोती है 

बंद कर द्वार बाहआडंबर का 
सादगी की छाँव तले 
छोटी-छोटी खुशियों को संजोती है 

पड़ोसी से ईर्ष्या का नहीं है
उसके दिल में कोई कोना   
उसके थके बदन को तो चाहिए बस 
दो वक़्त की रोटी और बच्चों के लिए 
एक बिछौना   


तारीख: 10.06.2017                                    अमिता सिंह









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