केदार- विप्लव

बाकी है , 
 रत्तीभर मुस्कान  
 आँचल-भर  शोक-दर्द 
 अभी बाकी है ।

 भारत के स्वर्ग का 
 उजड़ना
 अखरता है , 
 गुमनाम अपनों को ढूंढते देख ,
 बिलखता है मन ; 
 बरौनियाँ ब्याकुल हैं 
 पर सूखी आँखों में पानी कहाँ  ?

 किस पुण्य कर्म का फल 
 मांगते हैं हर रोज , 
 अपने तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं से ;
 जो खिलवाड़ किया 
 हिमालय के आभूषणों से , 
 किया भी तो 
 नव हिमालय को ,
 भेदने का दुस्साहस ।

 तो रहती है इतनी भीड़ 
 बाबा केदार के पास , 
 उनकी देहरी पर 
 मांगते रहते हैं आशीर्वाद ; 
 जोड़ते है हाथ
 धोते रहते हैं इस तरह , 
 अपने मन और आत्मा का मैल ।

 व्यथित मै "अकेला" नहीं हूँ  
 मेरी डायरी के पन्ने ,
 बहते हुए अभी 
 हिलोरे मारती मन्दाकिनी में , 
 खून-पसीने की फसल 
 दादी के जमा किये हुए पुराने , 
 मटमैले रंग के सिक्के 
 पाँचवीं जमात का अंक-पत्र ,
 धूमिल हो गया है ।

 पर बाकी है 
 अतुल्य-प्रेम , 
 गिरकर उठने का संकल्प 
 अभी बाकी है  । 


तारीख: 01.07.2017                                    अतुल मिश्र "अतुल अकेला"









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