मैं और क्या करती ?

दीवारों पर पोस्टरों में सच्चाई छपी है,
एक चेहरा दिखा है,
बेबात तानों के स्रोत का अंकुर हो जैसे,
हो ज्यों खुदको 'परफेक्ट' साबित करने का
ज्यों किसी नागफनी का
पहला पत्ता.
मैं यहां उलझती तो कट फट जाती,
मैंने दूसरा विकल्प चुना,
जो कानों के अंदर उतर कर दिल में नहीं समाता, बल्कि दूसरे कान के पार हो जाता है।
ज्यों भांय भांय सा बेहोश सन्नाटा
जिसमें अनुभूति तो है, पर प्राण नहीं
मैं और क्या करती ?
उस परफेक्शन की परिभाषा मेरी आसमां सी डिक्शनरी में नहीं

किताबों में स्याही रिसती गयी है,
पन्ने एकरंगी हो गए हैं,
लिखते लिखते
इंपोर्टेंट का हाईलाइटर लगा कर
हेडिंग को लाल कलम से नुकीला बना के
ज्यों कैरियर की, पैसा कमाने आपाधापी में बिखर गए हों सपने
युद्धभूमि पर बिखरा लाल रंग हो जैसे,
इक पड़ाव के तलबगार बनकर ना जाने कितने सौ मकाम छोड़कर चल पड़े हों जैसे
आखिरी पड़ाव कि मानिंद
मैं यहां उलझती तो लथपथ हो जाती, 
मैं यहां से कूच कर गई,
खुद के लिए
इक कप कोल्ड कॉफी, दो जीरा बटर कुकीज़ और एक किताब के लिए
जो मैं अपने साथ पढ़ना चाहूंगी, शांत से इक कोने में
हां, मैं हूं स्वार्थी
मैं और क्या करती ?
क्या तुम जियोगे मेरे मन का सच??
क्या मैंने तुम्हें अनुमति दी??
बिल्कुल नहीं !

चेहरों पर अब अभिनय जम सा गया है,
भाव सीमेंट के सांचों में हैं,
ज्यों प्लास्टिक सर्जरी की हुई इक सुंदर सी वास्तविकता
एक ही दुःख को पीसा गया हो जैसे, 
और हो किसी बूढ़ी उम्मीद का सुंदर सा,
एक शमशान.
मैं यहाँ उलझती तो जल वल जाती,
मैंने वास्तविकता चुनी,
मैं और क्या करती?
क्या तुम कर सकते हो ये सीमेंट सा अभिनय??
हां, हूं मैं 'फ्यूडल' औ हूं 'ब्रूटल'
पर में वो , 'एत् त्यु ब्रूटस' वाली ब्रूटस नहीं।
क्या कोई बताएगा?? कि वास्तविक होना ही सबसे ज्यादा भ्रमित करने जैसा क्यों है?
तुम ही बता दो?
क्या??
नहीं??

हहहहहः, सही! 
तब, मैंने ही अपना वास्तव चुन लिया।
मैं और क्या करती?


तारीख: 16.10.2019                                    सौम्या नाथ मिश्रा









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