मन का घोड़ा

क़दम पड़ते कहाँ  ,कहाँ मैं चलती
     हो के हैरां -कुछ परेशां
अपने मन को टटोलती
      मन तो घोड़े की तरह

दौड़ाता है जैसे , दौड़ाता है जब
   रूकने का नाम नहीं लेता
कभी आसमां के बादलों में पहुँचा देता
कभी वीरान जंगलों में भटका देता

    दौड़ाता है वो इस क़दर
न कोई जोश रहता , न कोई होश रहता
     घड़ी -घड़ी दौड़ाता है तू
रूकने का तू  क्यूँ  नाम नहीं लेता
तुझे कैसे करूँ अपने क़ाबू  में
   ऐ मन के घोड़े तू ही बता
 


तारीख: 02.07.2017                                    पूजा कालरा









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है