क़दम पड़ते कहाँ ,कहाँ मैं चलती
हो के हैरां -कुछ परेशां
अपने मन को टटोलती
मन तो घोड़े की तरह
दौड़ाता है जैसे , दौड़ाता है जब
रूकने का नाम नहीं लेता
कभी आसमां के बादलों में पहुँचा देता
कभी वीरान जंगलों में भटका देता
दौड़ाता है वो इस क़दर
न कोई जोश रहता , न कोई होश रहता
घड़ी -घड़ी दौड़ाता है तू
रूकने का तू क्यूँ नाम नहीं लेता
तुझे कैसे करूँ अपने क़ाबू में
ऐ मन के घोड़े तू ही बता