मुझे तुमसे मोहब्बत है

तेरा रूठना होता था जैसे कुदरत का कहर
तेरा मान जाना होती थी मुझपे रब की मेहर
तेरे ख्यालों में थक कर लौट आते थे
यूँ सोते थे दामन में जैसे था वो मेरा घर

तेरे आंसूओं में खुदा ए पाक़ होता था
तुझे रोते देख जब मेरा दिल चाक होता था
जब मैं किसी एक शख्स के आगे खुली किताब था
तेरा वो जादू मुझपे कितना लाजवाब था
जब रानाइयों से हम-तुम भरे भरे से थे
जब दूर रहते थे,तो रहते अधमरे से थे
जब शाम सेहर रात का मुन्तज़िर फर्क ना रहा था
"मुझे तुमसे मोहब्बत है" मैंने हर दम ये कहा था
जब दूर जाते देख तुझे मेरी ग़ज़ल अधूरी ही रह गयी
इक टूटी इमारत थी बची खुची भी ढह गई

     "माँ"

चिढ के जो पूछा मैंने क्या  फिक्र के सिवाय कोई काम नहीं है
माँ ने कहा जब से तू परदेश गया है दिल को मेरे आराम नहीं है

न दफ़न करना मुझे ना चिता पे लिटा देना
मेरी ख़ाक मेरी माँ के क़दमो तले बिछा देना
शब ए देर से पूछा जो मैंने माँ कब सोई थी
तड़के-सहर ने बतलाया फिर रात भर वो रोई थी
आसान सी लगती एक टेढ़ी खीर होती है  माँ
खुद का अक्स लिए एक तस्वीर होती है माँ
जब मुन्तज़िर सारा ज़हान खड़ा खिलाफ होता है
तब सिरहाने माँ के आँचल का गिलाफ होता है
बड़ी दूर निकलता आ रहा हूँ इक दिन जोर से पुकारना
लौट के फिर माँ आ जाऊँगा मैं तुम आरती उतारना

माँ है तो चैन है माँ है तो सुकून है
माँ है तो ख़ुशी है माँ है तो ज़िन्दगी है
माँ है तो माँ है.....
माँ तो बस माँ है....


तारीख: 15.06.2017                                    मुंतज़िर









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