नदियां

सुनो हे शैलज़ा,
सुनो हे जलमाला।

तुम मेरे शहर न आना।

तुम खूब टहलना जंगलों में,
तुम खूब उतरना पहाड़ों पर,

तुम करना आलिंगन गावों का,
तुम हिमालयों की कथा सुनाना,

तुम सब छू कर करना हरा-भरा,
फिर अपनी सुंदरता पर इतराना, मगर

तुम मेरे शहर न आना।

यंहा हम विष उगलेंगे

तुम्हारे कोरे-सादे बदन पर,
अपना हम 'गरल' रंग भरेंगे।

फिर खाँसोगी जब तुम झाग उगलकर,

हम अपनी-अपनी नाकों पर रख कर हाथ,
छी-छी और थू-थू करेंगे।

क्या फायदा है तुम्हे ये सारा विष पीकर,
हम फिर भी तुम्हे न 'शिव' कहेंगे।

जो गर बचा हो थोड़ा भी स्वाभिमान,
या हो थोड़ी सी हीं जान अगर,

तो अपनी ये दुबली-पतली काया लिए,

किसी नहर की बांह पकड़कर,
दूर कहीं चली जाना।

सुनो हे शैलज़ा,
सुनो हे जलमाला,

तुम मेरे शहर न आना।


तारीख: 19.09.2017                                    अंकित मिश्रा









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