नीरव

भोर का मंज़र एक अजब राग गुनगुनाता है।
मानो चाँदनी के साथ मिलकर महताब सूरज को जगाता है।
खिल जाता है अम्बर भी चिड़ियों की चहचहाहट से।
फिर भी भोर का ये नजारा नीरव कहलाता है।

इश्क में पागल जब एक सजनी अपना सब कुछ खोती है।
रातों को जब भी दीवानी, पाने को साजन, रोती है।
बिलख बिलख आवाज लगाती, वो अपने प्रेमी को।
फिर भी वो घड़ी देखो कैसी नीरव होती है।

जब माँ का दुलारा बेटा घर छोड़ और कहीं जाता है।
अपने सपने सच करने वो माँ को भूल ही जाता है।
कभी कभी जब घर वो आता माँ की आँखें भर आती।
ख़ुशी से झूम जाती है वो पर बेटा नीरव रह जाता है।

एक कैदी को अदालत में सजाए मौत सुनाई जाती है।
फिर एक दिन उसकी वो फाँसी की घड़ियाँ आती हैं।
पूछा जाता उससे उस पल, अंतिम इच्छा बोलो जी।
सैलाब सा उठता मन में पर आँखें नीरव बन जाती है।

सागर की इठलाती लहरें मदमस्त मचलती जाती हैं।
कभी खुशी सी नजर आती, कभी मंजर-ए-सैलाब दिखाती हैं।

सागर के अंतर की दुनिया बहोत खूबसूरत होती है।
क्योंकि उपद्रवी लहरें सागर की अंतर में नीरव होती हैं।

घर में हर तरफ खुशियों की शुमारी सी छा जाती है।
सब की आँखें शोर मचाती, कुछ आँखें छलक भी जाती हैं।
नए जन्मे बच्चे को पिता जब हाँथों में अपने लेता है।
खुशी से आँखें रो पड़ती, और जुबान नीरव हो जाती है।

बीच सड़क एक लड़की की, इज्जत उतारी जाती है।
अकेला नहीं होता वो, हर शैतान की बारी आती है।
वो चीखती है, बिलखती है, रो रो गुहार लगाती है।
पर शैतानों की हँसी के आगे, चीखें नीरव रह जाती हैं।

उस लड़की की समाज में, फिर अनदेखी की जाती है।
वो जो सबसे प्यारी है, उसे सजा दी जाती है।
बेघर सा कर देते हैं सब, उस प्यारी सी बच्ची को।
तरस आता है, उन सब पर, जिनकी रूह नीरव हो जाती है।

देखना, बहोत जल्द, वो वक्त भी आएगा।
कोई जीता नहीं रहेगा, इंसान विलुप्त हो जाएगा।
धरती भी यही होगी, आसमान भी यही होगा।
जलमग्न हो जाएगा जहान, सब कुछ नीरव हो जाएगा।


तारीख: 18.10.2017                                    विवेक सोनी









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