राख़

मेरी कलम रो रही है | 
कब से पता नहीं,
पर लगातार...
कागज़ पर कुछ निशान ज़रूर छूट जाते हैं हर बार | 

निशान,जिनका अर्थ समझ पाना 
लगभग असंभव है  
लेकिन यमुना के किनारे खड़ी 
यह चिमनी जब आसमान के पर्दे पर,
अपने मुह से रंगों का गुबार फैला देता है,
तो कुछ हज़ार आँखें,उस धुंए में 
कुछ हज़ार मतलब तलाशने में लग जाती हैं |
 
राख दोनों ही से निकलती है
तुम्हारी सिगरेट और हमारे चूल्हे,
दोनों से  
फर्क कुछ भी नहीं दोनों में,
पर एक जैसे भी नहीं हैं दोनों | 

तुम सिगरेट बुझा कर आगे बढ़ जाते हो,
हम उस राख को कलम में भर कर,
एक और बार कागज़ पर निशान उकेरने 
उस घर की ओर चल पड़ते हैं,
जिसको हमने बहुत पहले 
किसी पुराने कागज़ के किनारे पर लिखा था...
पहले वो घर भी महज़ एक निशान मात्र था 
अब हमारा भी निशान मात्र शेष है |


तारीख: 29.06.2017                                    राहुल झा









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