समकालीन संदर्भ में

लेकर बैठ जाता हूँ मैं 
वर्षों के महाकाव्य 
गुजरता हूँ , पंक्ति दर पंक्ति 
ठहरता हूँ , हर विराम पर
देख भी लेता हूँ 
आगे बढते  - बढते , हर बार
पीछे मुडकर
वहीं , उसी मोड पर , आकर 
ठहर जाता हूँ , सोचता हूँ कि -
कविता क्या है ?
गूंजते है , उदात्त व्याकरण की गृहस्थी के 
सभी उच्चकुल सम्पन्न नायक 
कि कविता -
घरेलू हिंसा के खिलाफ 
शब्दों का सत्याग्रह है ,
जलती हुई मोमबत्ती की
पिघलती हुई आह ! है ,

रास्तों में , सडक पर 
भीड का , बाजूओं पर 
काले धागे में बदल जाना
चल पडना प्रगति मैदान में 
किसी - न - किसी छाया के नीचे 
हाथों में लिए , तख्तियों पर 
कुछ अहिंसा के गिने चुने ; संवैधानिक शब्द लिए 
कि नागरिकों को अधिकार है 
वो निर्धारित कर सकें 
अपनी जुबान से निकलने वाली ध्वनियों के
स्पर्श स्थान , मुँह के भीतर ,
अब जब आक्रोश का दूसरा नाम 
भूख हडताल है ,
निकल पडना घर से गंगा-घाट पर
देश भक्ति की पहचान ,

मुझे उचित लगता है , उस समय , कहना
उस बंदूक धारी का
कि कविता और कुछ नहीं 
युद्ध है , अपनी पहचान का ,
उससे , आंखें न मिला पाने की , विवशता
धरोहर से अलग कर देने 
की चालाकी , 
उसे नक्सली बता देती है ,
और विधान के इस प्रपंच में
एक आवाज को असंवैधानिक ,ठहरा
देती है ।   


तारीख: 14.06.2017                                    सुशील कुमार शैली









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