प्रेम की है भाषा क्या, और प्रेम की अभिलाषा क्या
तींच्न्द कटु हृदयी जनों से, प्रेम की है आशा क्या
प्रगति अपनी मान करके, प्रकृति का अपमान कर के
काट जंगल को यहाँ तुम, स्वयं का घर-बार भर के
खुद समझते हो भला की, तुम बड़े विद्वान हो
झांक चिलमन से जरा, तुम भूत का वरदान हो
गर मान पूर्वज भी वही करते जो तुम ये कर रहे
तो क्या यहाँ तुम आज भी रहते यूँ सांसें भर रहे?
ना जी सका है कोई भी दूजों का घर यूँ नाश कर
और लिख दिया ईश्वर ने जल्दी अन्त तेरा खास कर
चलो मान लो यह व्यर्थ की बातों का बस एक अंश है
पर देख सम्मुख तू जरा तेरा अधुरा वंश है
तू ज्योति प्रगति की जला पर अश्त्र ना हम पर चला
अरे! खेल ना तू प्रकृति से बस सीख जीने की कला
प्रेम अंजलि से यहाँ, भर देंगे हम दोनों जहाँ
भई तुम वहां पर खुश रहो और खुश रहें अब हम यहाँ,
और खुश रहें हम सब यहाँ