सपने जलाता हूँ

  कुछ पुराने सपनो की एक
        गट्ठर बनाई है,
        रात है काफी लंबी,
        तो एक आंच सुलगायी है।

        इक इक करके दो तीन सपने
        उठा उठा मै जलाता हूँ,
        सेकता हूँ हाथ अपने और
        झट से चेहरे पर रख लेता हूँ।

        जो चोट है मेरे अंदर
        वो इन सपनो की तपिश से
        सुख जाएंगे।

        एक सपना जो जलता नहीं,
        कल रात ये शायद 
        तकिये के नीचे भींग गया था,

        धुआं, काला धुआं निकलता है,
        मैं खांस खांस, फूंक मारता हुँ

        मैं आजकल सपने जलाता हूँ।

        लपटें, हाँ लपटें बहुत तेज
        उठती हैं,
        कुछ अनचाहे सपने भी झुलस रहें हैं,
        मैं अपने अंग जला जला कर
        उनकी राख, भभूति लगाता हूँ,

        मै आजकल सपने जलाता हूँ।

        ठहरो ठहरो सुनो,
        कोई चिल्लाता है, शायद सपने हैं
        पर मुझे इनका विश्वास नहीं,
        मैं और आंच लगता हूँ, सुलगता हूँ

        मैं आजकल सपने जलाता हूँ।


तारीख: 02.07.2017                                    अंकित मिश्रा









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