संवरने लगी अब जिन्दगी

कभी सुस्त कदमों से, 
कभी सरपट दौड़ते,
अजनबी चेहरों के बीच,
मुस्कराहटे ओढ़ते,
अतीत की स्मृतियाँ समेटे,
थाह पाने की कोशिश में, 
पन्ने पलट रहे थे, 
जिन्दगी की किताब के।

चले जा रहे थे हम यूँ ही, 
अन्जानी सी राह पर। 

गुलाबों की रंगत लिये इस शहर में,
है मौसम ने ली, इस तरह की करवट,
कि गढ़ने लगे सानिध्य में नये रिश्ते,
स्वर अपने भी पहचाने जाने लगे अब,
मुस्कराने के हजारो बहाने मिले अब,
 
इस शहर में बदलने लगी अब जिन्दगी
इस शहर में संवरने लगी अब जिन्दगी ।


तारीख: 15.06.2017                                    भारती जैन









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है