उस पार

अतीत का स्मरण अंतस को
हर्ष-औ-उल्लास से भर देता है
व्यथित ह्रदय का रस नैनों का
झरना सोख लेता है

यादों का सफ़र दिल में
करुणा और विषाद
भर देता है
गुजरा वक़्त शिलाओं में भी
कम्पन कर देता है 
        
पनीली पलकों से जो बहता है दुःख
अम्बर भी फिर बदली को
ढक लेता है
मैं जानती हूँ बिछुड़ना विवशता है
प्रगति के सागर को पार करने की
नन्हीं बूंदों के अस्तित्व का
विस्तार गढ़ने की

मगर मैं अंतस्थ की मुट्ठी को कैसे भीचूं ?
जो पनपा है मेरी कोख़ तले
उस अंबल को कैसे काटूं ?
मैं ममता की हठधर्मिता को कैसे छोड़ूँ ?
मैं आँचल के पल्लू की मनुहार को
कैसे भूलूँ ?

रोज करती हूँ वादा स्वयं से
तुम्हारी उड़ान पर लोहा न पिघलने दूंगी
दबा के रखा है जो अंगार हृदय की
धौंकनी पर
उसका गुबार तुम तक न पहुँचने दूंगी

फिर भी ख्वाबों में अगर छलक आये
ममता का लहू
सोख लेना हाथों की लकीरों में तुम
आशीर्वाद समझकर
जीत लेना जहाँ को तुम
मेरा आशीष समझकर
जिस रोज़ छुओगे तुम उन्नति का शिखर
मैं समझूंगी तुमने किया है मेरा चरण-स्पर्श


तारीख: 30.06.2017                                    अमिता सिंह









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