बचपन में जब घर पर दिवाली मानते थे तो पापा एक पैकेट "मुर्गा छाप" "बीड़ी बम" लाकर दे देते थे, उसी में इतनी ख़ुशी होती थी की क्या कहने। पटाखे को भैया की निरक्षण में दिन भर धुप में सुखाया जाता था ताकि शाम की आतिशबाजी में कोई कमी न हो।
और शाम को पापा जब पूजा करते तब मम्मी दीदी को थाली में दिए सजाकर उनमे तेल और रुई डालकर देती, वो उन दियो को चौखट दरवाजों और घर में सजाती। उसके बाद पापा की पूजा ख़त्म होती तो गणेश लक्ष्मी जी को मत्था टेककर और मम्मी पापा से आशीर्वाद और मोतीचूर के लड्डू प्रसाद में लेकर हम दोनों भाई घरौंदे के पास पहुँचते। जहाँ तीनो बहने मिलकर हमारे छोटे से जगमगाते घरौंदे को अपने प्यार और कूल्हे चुकियों से भर देती।
आज सब दूर हैं एक दूसरे से, मम्मी, पापा, भैया, दीदी, सब। याद आती है तो फ़ोन कर लेते है या आधुनिक दौर का वीडियो कॉल। लेकिन, न वो एक दूसरे का हाथ पकड़ कर फुलझड़ी जलना है न भैया का तीली छीलकर दिया हुआ बीड़ी बम है, और न पापा का अचानक चलाया हुआ चटाई बम है।
सब कही पीछे छूट गया है, और आज जब अकेले एक फुलझड़ी जलाता हूँ तो लगता है *दिल जल गया*।