समय के झरोखे से हरिशंकर परसाई

मेरे लिये छठे दशक और सातवें दशक का बनारस कई अनूठे क्रियाकलापों के कारण अविस्मरणीय रहा है. अनूठा इस मायने में कि एक तरफ अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन, नागरी प्रचारिणी सभा बचाओ संघर्ष समिति, प्रेमचंद की लमही, कामगार स्त्रियों के लिये षौचालय सरीखे बहुविध सतत सक्रियता के चलते, तिहाड की जेल यात्रा से आपातकाल में मीसा में बंदी होने तक का सिलसिला रहा है. दूसरी तरफ इस प्रकार की गतिविधियों के ही समानान्तर पत्रकारिता के मोर्चे पर भी तमाम-तमाम आपाधापी बनी रही. ‘आज’ साप्ताहिक से पत्रकारिता की बारादरी में रखा कदम ‘दिनमान’ ‘धर्मयुग’ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ से लगायत भूमिगत बुलेटिन ‘रणभेरी’, जेल से ‘चिंगारी’ के संपादन तक की ओर बढ़ गया था.

यह वह दौर था जब छोटे-छोटे समझौतों की विवषता के बावजूद बडे़ समझौतों को ठुकराने का माद्दा समाज से संस्कार के तौर पर उपलब्ध होते रहने का माहौल बना हुआ था. सत्ता-सम्पत्ति की बेलगाम-ललक की जगह सामाजिक संवेदना सर्वोपरि रही है. लगभग उसी दौर में मनुष्य की बुनियादी प्रश्नों और चिन्ताओं में निरंतरता और धारावाहिकता को मानने वाले आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी बनारस छोड़ चुके थे. डा. नामवरसिंह भी सुमधुर कंठ के साथ ‘झुपुर-झुपुर धान के समुद्र में, हलर-हलर सुनहरा विहान’ गाते हुए काशी छूट रही थी. त्रिलोचन, चन्द्रबली सिंह, शिव प्रसाद सिंह, काशीनाथ सिंह घाट थामे अब भी काशी में डटे हुए थे.

Harishankar Parsai

राज्यों में संविद सरकारें उठान पर थी. आजादी के बाद की पीढ़ी अपने ही देश में बेगानापन महसूस करने लगी थी. देष कई कोण से आन्दोलित हो उठा था. नेहरू काल के मिथ दरकने लगे थे. जिसका प्रभाव राजनीति ही नहीं साहित्याकाष पर भी साफ-साफ कौंधता हुआ दिखलाई पड़ने लगा था. मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय की लीक से अलग अपने नये तेवर के साथ धूमिल उभर रहे थे.

लेकिन इन सबसे बिलकुल ही जुदा, समय के सींगों को मोड़ने का हौंसला लिये व्यंग्य की चेतना को सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन का माध्यम बनाकर अपनी लेखनी से युवजनों को उद्वेलित करने वाले हरिशंकर परसाई छा गये थे. व्यंग्य का तीखा-तुर्श स्वाद किसी को भी भीतर तक हिलाने के लिये काफी था. मेरे लिये डा. राम मनोहर लोहिया के बाद हरिशंकर परसाई दूसरे बडे़ नायक थे. ऐसे में स्वाभाविक था कि उनका लिखा चाहे वह पुस्तक में हो या पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले कॉलम मेरी पकड़ में हुआ करता था. रूमानियत भरे उम्र के उस पड़ाव पर चाहत भी सीमातीत हुआ करती थी. जिनसे प्रभावित होता था, सम्मोहित हो जाने के स्तर को भी पार कर जाता था. परसाईजी से कभी नहीं मिला लेकिन हर क्षण महसूस करता हुआ कि साथ-साथ हैं. 

उनका लिखा पढ़ते हुए हमेशा लगा कि परसाई जी को विचारों से सख्त नफरत थी. हरिशंकर परसाई केवल लेखक कभी नहीं रहे. वे लेखक के साथ-साथ एक्टिविस्ट भी थे. उनका समूचा जीवन आन्दोलनों और यूनियनों से जुड़ा रहा. आन्दोलन छात्रों के, श्रमिकों के, शिक्षकों के, लेखकों के भी. वे लेखक के रूप में अपनी भूमिका के संबंध में असंदिग्ध थे. लेखक साम्प्रदायिकता का विरोध करना चाहिये, विश्वशांति का समर्थन करना चाहिए, जो शक्तियां इन प्रयासों का विरोध करती हैं, उनका विरोध और जो इनको बल पहुंचाती हैं उनका समर्थन. उनके अभिन्न मित्र डॉ. कान्तिकुमार जैन ने सही ही लिखा है कि, ‘ बीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध की मूल्यगत गंदगी को साफ करने के लिये एक बहुत बडे़ लेखक की आवश्यकता थी. परसाई वैसे ही लेखक हैं. वे हमारे दौर की सच्चाईयों के संवाददाता हैं, वे हमारे समाज की मूल्यगत दरारों पर फैंसले सुनाने वाले सत्र न्यायाधीश हैं, वे छद्म और आदर्ष के बीच की दूरी को नापने वाले समाज-वैज्ञानिक हैं. प्रेमचंद और परसाई भारतीय समाज की बीसवीं शताब्दी के सत्य को जानने, समझने और उनका मूल्यांकन करने के लिये दो ऐसे गवाह हैं जो अगली शताब्दी के लिए भी उपयोगी, प्रासंगिक और मूल्यवान बन रहेंगे.’

मेरी पाठ्य पुस्तकों से इतर किताबों से दोस्ती बचपन में ही हो गयी थी. घर में बांग्ला और अंग्रेजी किताबों का अच्छा संग्रह था. हिन्दी में रामायण-महाभारत-पंचतंत्र के अलावा सिर्फ प्रेमचंद की ही किताबें थीं. मेरी रूचि क्रान्तिकारियों की ओर हुई तो राहुल, यशपाल, सावरकर के साथ मन्मथनाथ गुप्त की भी किताबें इकट्ठी हो गई. इसी बीच लेखकों को चिठ्ठी लिखने की धुन सवार हुई तो मन्मथनाथ गुप्त ने न केवल जवाद दिया अपितु पढ़ने को उकसाते भी रहे. लेकिन यशपाल का ‘झूठा-सच’ पढ़कर जितना मुग्ध हुआ उतना ही मेरे पत्र के जवाब में अपने प्रकाशन गृह का सूचीपत्र भेजकर उन्होंने निराश ही किया. मैंने पत्राचार की कोशिश की किन्तु वे तो वास्तव में ‘साम्यवादी-बनिया’ थे.

फिर जब परसाई से नाता जुड़ा तो पत्र-व्यवहार की ललक जगी. इधर परसाईजी थे कि जवाब ही नहीं दे रहे थे. सो उनके लिखे की चर्चा करते हुए मैंने ‘पत्र-सत्याग्रह’ प्रारम्भ कर दिया यानी रोज एक खत लिखता. खत संदर्भों से जुडे़ होते, सिर्फ लिखने को नहीं लिखता था. अंततः परसाईजी और उपेक्षा करने की स्थिति में नहीं रहे. 22.6.69 को लिखा उनका यह खत मिला’-

प्रियभाई,
तुम्हारी चिठ्ठी काफी तल्ख है. धूमिल की कविता भी बड़ी तीखी है. यह चिठ्ठी में छपने को दे रहा हूं. अखबारी सूखे ठंडे समाचारों से यह चिठ्ठी ज्यादा काम की है. अपने मित्र से कहना फोटोग्राफ मिल गये हैं. उन्हें लिखूंगा.
-हरिशंकर परसाई

इस खत के बाद ‘पत्र-सत्याग्रह’ तो मैंने खत्म कर दिया किन्तु पत्र लिखना नहीं. छात्र राजनीति से सीधे जुड़ाव और समाजवादी युवजन सभा की सतत् सक्रियता. यूं भी बनारस हमेशा आन्दोलित रहने वाला शहर है. व्यवस्था विरोध बनारस का स्वभाव है. उन दिनों किसी भी राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय स्तर के विद्वान को, संगीतकार को, चिकित्सक को, पत्रकार को या रईस को सिर्फ गमछा पहने और कंधे पर डाले सब्जी बाजार में, पान की दुकान पर कहीं भी देखा जा सकता था. घमंडरहित. ऐसे में परसाईजी को मेरा कोई भी खत फालतू नहीं लगा. मैं अपनी सक्रियता के बारे में बताता. उनकी रचना पर अपनी टिप्पणी जड़ता, वे कभी नाराज नहीं होते. ऐसे में एकबार परिसंवाद का निमंत्रण भिजवाया. उन्होंने 13.1.71 को लिखा-

प्रिय बन्धु,
आपका पत्र मजेदार है. आप मेरा पत्र चाहते हैं तो यह लीजिये. आप क्या विश्वविद्यालय के छात्र हैं? आपने विश्वविद्यालय में पीएसी आदि का जिक्र किया है. आपको नहीं पता कि सुधारवाद से कुछ नहीं होगा. सड़े को एकबारगी नष्ट कर देने के बाद ही नया बनेगा.
हरिशंकर परसाई

बनारस में हिन्दू-मुस्लिम दंगा प्रायः हुआ करता. तबाह गरीब लोग ही होते. खासकर बुनकर. नेताओं, व्यापारियों का धंधा चमकता. गरीब हर दंगे के बाद कर्ज से लद जाता. जिंदगियां यू ही तमाम हुआ करतीं, यही सिलसिला था. मैं उन्हें विस्तार से अपनी पीड़ा लिखता, कारण बताता, क्या कोशिशें हो रही हैं लिखता, वे भी जानना चाहते थे. वे तकलीफ में मानसिक सहारा देते. प्रायः उनके किसी कॉलम में मेरे द्वारा बताई गयी घटना पर उनकी राय की झलक भी पाता. बल मिलता. मेरी साख में बढ़ोत्तरी होती.

एकबार कलम-कूंची के धनी मेरे अभिन्न साथी प्रभुनारायण झिंगरन का शैक्षिक-भ्रमण के सिलसिले में जबलपुर जाना हुआ. स्वाभाविक ही था कि वे परसाईजी से मिलकर आना चाहते थे. मुझसे पत्र ले गए हालांकि जरूरत न थी. वापस आकर बोले, तुम्हारे बारे में ऐसे बात कर रहे थे, मानों तुम्हें वर्षों से जानते हैं. मैं गदगद हुआ. झिंगरन फोटो भी खींच लाये थे. उन्हें भिजवाया. 28.1.71 के पत्र में उन्होंने मुझे उसी संदर्भ में लिखा है. इसी पत्र में मेरी चिठ्ठी छपवाने का भी जिक्र है. सुधी पाठक मेरी मनः स्थिति का आकलन आसानी से कर सकते हैं. लगभग पगला जाने की स्थिति में पहुंच गया था. कई मित्र ईर्ष्याग्रस्त भी हुए. मैं उत्साहित-प्रेरित हुआ. यह और बात है कि एक साथ कई नावों की सवारी के चक्कर में कहीं नहीं पहुंच पाया वर्ना उम्र के इस पड़ाव पर पछताने की नौबत न आती.

फिर कब चिठ्ठी-पत्री से उनके निकट हुआ, पता ही नहीं चला. इतना कि बनारस से कोई भी जबलपुर जाकर उनसे मिलता तो मेरे बारे में जरूर पूछते. जाहिर है उनसे मिलने वाला साहित्यकार-पत्रकार या शोध छात्र ही हुआ करता. नतीजन बनारस में मेरा ‘औकात-सूचकांक’ उछाल पर था.

कवि-पत्रकार रघुवीर सहाय संपादित ‘दिनमान’ राजनीति और साहित्य का उस दौर में माणक पत्र था. उसमें संपादक के नाम पत्र छपना भी लिखने-पढ़ने वालों के बीच ‘साख’ जमाने के लिये काफी हुआ करता था. जबकि रघुवीर सहाय जी की अतिरिक्त उदारता से मेरी रपटें छपती थीं. मैं अनायास बनारस में ‘दिनमान’ का प्रतिनिधि मान लिया गया था, क्योंकि था नही, ताल्लुक सिर्फ छपने भर का ही था.

समाजवादी तेवर वाले ‘दिनमान’ की प्रखरता तब भी कसौटी पर खरी उतरी जब 1973 में जूनांत 21 की एक षाम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गुर्गों ने हरिशंकर परसाई को पीट दिया. किसी लेखक के साथ घटी यह घटना अपने आप में हिला देने वाली थी. परसाई जी को इससे बहुत आघात पहुंचा. संभलने के बाद परसाईजी ने ‘दिनमान’ में वक्तव्य दिया- ‘मेरा लिखना सार्थक हो गया.’ हिन्दी के दूसरे अखबारों ने इस घटना का कोई खास नोटिस नहीं लिया. 15 जुलाई के ‘दिनमान’ में यह घटना छपी तो भारत भर से लगभग 500 चिठ्ठियां परसाईजी के पास पहुंची कि वे अकेले नहीं हैं- लोग उनके साथ हैं. बनारस में हमने प्रतिरोध स्वरूप प्रदर्शन किया. परसाईजी की उक्ति ‘फासिस्टवाद मगरमच्छ की तरह है. संघ का फासिस्टवाद भी मगरमच्छ है. वह एक-एक कर निगलता है.’ को दुहराते हुए जुलूस निकालकर चुनौती दी. हमारी (बनारस के पत्रकार-साहित्यकारों की) प्रतिक्रिया ‘दिनमान’ में छपीं. उन्होंने 9.8.73 को भेजी चिठ्ठी में लिखा-

प्रियभाई,
चिठ्ठी मिली. जिस तत्परता और साहस के साथ तुम सबने फॉसिस्टों के विरूद्ध कार्यवाही की है, उससे मै आश्वस्त हुआ. युवा-वर्ग इनसे अंतिम लड़ाई लडे़गा. और इनका अंत भी होगा. लखनऊ जेल से भी मुझे छात्र नेताओं की चिठ्ठियां मिली है.. सब मित्रों-साथियों को मेरा आभार पहुंचाओ.
-हरिशंकर परसाई

और अंत में कहना चाहूंगा कि मैं सिर्फ एक मायने में ही उनका पट्ट षिष्य बन पाया. मैंने भी अब तक उन्हीं की तरह जिम्मेदारियों को गैर-जिम्मेदारी से ही निभाया है. इसकी गवाही संप्रेषण संपादक अग्रज डॉ. चन्द्रभानु भारद्वाज दे देंगे.

(सुधेंदु पटेल का यह आलेख उनके ब्लॉग ठांव कुठाँव पर प्रकाशित हो चुका है)


तारीख: 07.06.2017                                    सुधेंदु पटेल









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