लौट आया हूँ कुछ दिनों के लिए अपने शहर में
देखूँ कितना बदला गया हूँ मै लोगों की नज़र में ।
रास्ते ,गलियाँ, चौराहे,बाज़ार वगैरह सब वही है
बस आ गई है बेहद तब्दीली नये दौर के बसर मे।
अब न वो लहजा, न सलीका,न ज़ज़्बे मोहब्बत
मिलते हैं,मुस्कुराते है पर खलीश लिये ज़िगर में ।
इस कदर काविज़ हो गई खुदगर्ज़ी इबादतों में
आती ही नहीं दुआएँ अब तो किसी असर में ।
सीख लो चलन अजय अब तुम भी नए दौर का
ढूंढना बेकार है ज़ाएका-ए-अमृत यूँ जहर में ।