दावत-ए-इश्क़ का कोई उन्मान नहीं है
मेहमाँ तो है मगर मेज़बान नहीं है।
खुली छत है पूरा आसमान है सामने,
शाहीन की इतनी ऊँची उड़ान नहीं है।
करता तो है वो हर एक सांस में इबादत,
लगता है खुदा ही उसपे मेहरबान नहीं है।
चाहता तो हूँ उसको ग़ज़ल में पिरो देना,
पर पढ़ने वाला भी तो कद्रदान नहीं है।
गम की घडी हो तो बस मेरा ही शाना हो
बस इसके सिवा कोई अरमान नहीं है।