खुदा की रेहमत

खुदाया, क्यों, तेरी रेहमत से, मैं, सागर की तरह, गहरा ना हुआ,
या फिर, उस नीली झील के,पानी की तरह, एक जगह, ठहरा न हुआ,
 
क्यों, मैं उड़ता फिरा, उन बेचैन परिंदो की तरह, उम्र भर यंहा से वंहा,
मेरे बेशुमार, रंगीन से ख्वाबो पे, क्यों आखिर, कभी तेरा पहरा न हुआ,
    
यूँ तेरी रेहमत से बहुत मुश्किल ना था बरसों का मेरा ये लम्बा सफर,
यूँ चंद राहें, मुश्किल तो रही इसमें,पर शुमार इनमे कोई सेहरा न हुआ,
 
इस दुनिआ के बेशुमार, शोर-ओ- गुल ने, अक्सर किया, मुझे परेशान,
मैं सुनता रहा हर लम्हा सिम्त तेरी हर दौर,और खुदाया बहरा न हुआ,
 
तहेदिल से ज़िंदगी भर रहूँगा इस कदर, शुक्रगुजार तेरा ऐ मैं मेरे ख़ुदा,
कोई गिला नहीं के क्यों हर दौर, मेरे इस सफर का जो सुनेहरा न हुआ ,
       
खुदाया, क्यों, तेरी रेहमत से, मैं, सागर की तरह, गहरा ना हुआ,
या फिर, उस नीली झील के,पानी की तरह, एक जगह, ठहरा न हुआ !!


तारीख: 19.06.2017                                    राज भंडारी









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