सबसे लड़ता फिरता हूँ
देखो,कितना गन्दा हूँ?
अपने हर गम को ही मैं
इन ग़ज़लों में कहता हूँ
कुछ मुझको भी देदो तुम
सदियों से मैं भूखा हूँ
जगमग होती दुनिया में
मैं ही बुझता रहता हूँ
धोता हूँ मैं पापों को
मानो कोई गंगा हूँ
मंचो पर होता है जो
वो कविता का धंधा हूँ
खारा सागर मत समझो
मैं नदिया-सा मीठा हूँ
जग रौशन करने को मैं
दीपक बनकर जलता हूँ
मैं सबको मिलवाने का
शायद कोई ज़रिया हूँ
सुख की मय तेरी ख़ातिर
मैं दुख की मय पीता हूँ
कब किसकी सुनता हूँ मैं?
नेता जैसा बहरा हूँ