वो भी हमारे ख़्वाब में बिखरे हुए हैं

चंद लफ्ज़ ऐसे मेरी किताब में बिखरे हुए हैं 
खुशबुओं के क़तरे जैसे बाग़ में बिखरे हुए हैं। 

दुश्वारियों से अटी पड़ी है राह मिलन की 
कांटे कुछ जिस तरह गुलाब में बिखरे हुए हैं। 

गालियां देकर जो रुसवा बस्तियों से गुजरते थे 
आज वो ही हुस्न-ओ-शबाब में बिखरे हुए हैं। 

कुछ दाग़ खूबसूरती से तेरे चेहरे पर जड़े है 
जैसे वो ऊपर माहताब में बिखरे हुए हैं। 

टूटे प्यालों में अपने अक्स दिखे तो याद आया 
कई घर टूट कर शराब में बिखरे हुए हैं।  

हम तो खूब रोये थे उनसे जुदा होकर 
आज वो भी हमारे ख़्वाब में बिखरे हुए हैं।  
              


तारीख: 15.06.2017                                    विनोद कुमार दवे









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