वो कम दिक्खे है लेकिन उस में बात बहुत है
चाँद के जलवे बिखेरने को इक रात बहुत है 1
हम क्या ना लुटा बैठेंगे तुम्हारी मुलाक़ात को
मुझे लूटने को तेरी निगाहों की मात बहुत है 2
चलो नहीं छेड़ेंगे तुम्हें हम आइन्दा कभी भी
पर साँप के डसने को उस की जात बहुत है 3
कैसे और कब बदलेगा यह ख़ौफ़ ज़दा मंज़र
यह मत पूछ,पर तेरी छोटी शुरुआत बहुत है 4
घर में हो तो बचे हुए हो ,यह ग़लतफ़हमी है
जान लेनी हो तो अपनों की ही घात बहुत है 5
मजहब को क्या करना है मंदिर -मस्जिद से
फकीरों के भेष में दरिंदों की जमात बहुत है 6
इक ही कोशिश पर साँसें जब उखड़ने लगीं
नेताजी कहते हैं यहाँ तो मुआमलात बहुत हैं 7
बहुत ही रंगीन दिखता है टी वी अखबारों में
वरना इस मुल्क की नाज़ुक हालात बहुत है 8
क्या पता कहाँ पहुँचेंगी मेरी ग़ज़लें बाज़ार में
पर सच लिखने को कलम में दावात बहुत है 9