मोबाइल की माया, बना इंसानी हमसाया

हर इंसान अपने जीवन में एक अच्छे जीवन साथी की कामना करता है और इसके लिए कभी मना नहीं करता है क्योंकि अकेलापन और सुख-चैन से सुरक्षित दूरी बनाए रखने के लिए एक अदद जीवन साथी की ज़रूरत पड़ती है। जीवन साथी ऐसा हो जो आपके मन को भी भाए और आपके साथ  खाना खाए या ना खाए लेकिन साथ ज़ीने-मरने की कसमें ज़रूर खाए और सात जन्मों तक साथ भी  निभाए। 

 

भले ही केंद्र सरकार द्वारा सस्ती हवाई यात्रा "उड़ान" शुरू कर दी गई हो लेकिन फिर भी एक ही जीवन साथी के साथ एक जन्म से दूसरे जन्म में उड़ान भरना दूर की कौड़ी लगती है क्योंकि उड़ान भरने से पहले कान भरे जा चुके होते है। घोर कलयुग के इस दौर में जहाँ शाम को पत्नी का मूड कैसा रहेगा इसका पता भी पति स्मार्ट फोन में "ज्योतिष एप" देखकर लगाता है वहाँ आदमी सात जन्मों के साथ की बीमा पॉलिसी कहाँ से ले और 'यम' के बुलावे से पहले इतना लंबा प्रीमि'यम' कहाँ से भरे। आधुनिकता और भौतिकता  के इस दौर में जहाँ रिश्ते दरक और दूर सरक रहे है और अपने अब केवल सपने में मिलते है, वहाँ मोबाइल फ़ोन पिछले कुछ समय से रिश्तों की "गँवा पूंजी" बनकर सामने आया है। बिना किसी लिंगभेद और मतभेद के  स्मार्ट फ़ोन ही आजकल सबका "सोलमेट" बन चुका है क्योंकि वो बिना किसी अपेक्षा के कोई शिकायत किए हमेशा "चुपचाप" साथ रहता है।

 

पत्नी या प्रेमिका को मनाने/पटाने के लिए कभी कभी गाना भी गाना पड़ता है, जैसे, "तेरे चेहरे से नज़र नहीं हटती,नज़ारे हम क्या देखे।" लेकिन मोबाइल फ़ोन के लिए ऐसा कोई गाना गाने की ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि  वास्तव में  पूरा दिन मोबाइल से नज़र ही नहीं हट पाती। पहले वर-वधू को शादी के बाद "टाबर" (बच्चे) की चिंता होती थी लेकिन अब शादी के पहले और बाद में वर-वधू को केवल "टावर" की ही चिंता सताती है।

 

सुबह से लेकर रात तक मोबाइल फ़ोन इंसान का साया बनकर केवल डेटा और आवाज़ का ही संचार नहीं करता है बल्कि पूरा दिन अपने मालिक से अँखिया भी दो-चार करता है। मालिक तो थक हार कर रात्रि विश्राम कर लेता है लेकिन बेचारा मोबाइल तो  बंधुआ मज़दूर की तरह रात को भी चार्जर के खूंटे से बंधकर ओवरटाइम कर रहा होता है ताकि अगले दिन जब स्वामी निंद्रा से रिचार्ज होकर उठे तो वो 100% बैटरी बैकअप से मुस्कराकर उसका स्वागत और दिन की शुरुवात कर सके। 

 

हर हाथ के पास काम हो या ना हो लेकिन हर हाथ के पास मोबाइल ज़रूर है। आदमी को अपने वर्क की इतनी चिंता नहीं होती है जितनी मोबाइल नेटवर्क की होती है। फेसबुक, वाट्सएप, इंस्टाग्राम जैसे एप्स से आम आदमी टाइम-पास कर बहुत कुछ फेल करना सीख गया है। गूगल प्ले-स्टोर में जाकर दिमाग पर ज़्यादा लोड लिए कुछ भी डाउनलोड करना आसान है। गूगल स्टोर उस गोदाम की तरह की तरह हो गया है जहाँ उचित दाम पर सब वस्तु आसानी से मिल जाती है। वह दिन दूर नहीं जब गूगल स्टोर इतना "यूजर-फ्रैंडली" हो जाएगा की राशन की सारी चीज़े भी पंसारी की तरह उपलब्ध करवाएगा। ज़्यादा व्यस्तता होने आपातकाल में गूगल स्टोर सुलभता से सुलभ शौचालय का रूप लेकर हल्का करने वाला एप भी ला सकता है। हल्का होना इंसान के बहुत ज़रूरी है क्योंकि जितना हल्कापन होगा सफलता की उड़ान उतनी ही ऊँची होगी।

 

पहले लोगो के धैर्य की परीक्षा कठिन परिस्थितिया आने पर हुआ करती थी लेकिन आजकल मोबाइल में नेटवर्क ना आने पर हो जाती है। मेरी राय में,जीवन, दूसरी ऐसी चीज़ है जो क्षण भंगुर है पहली है मोबाइल का तेज़ इंटरनेट कनेक्शन। स्मार्ट फोन के उपयोग से ना केवल डिजिटल क्रांति आई है बल्कि "सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नहीं" जैसी रूढ़िवादी और पिछड़ापन लिए हुई धारणाए भी धूमिल हुई है।

 

मोबाइल के उपयोग से भले ही कई विकृतियों ने जन्म लिया हो लेकिन मोबाइल फ़ोन ने इंसान को विनम्रता सीखा दी है। अकड़ कर चलने वाला बंदा भी सारा दिन गर्दन झुकाए हुए हाथ में मोबाइल फ़ोन धारण किये रहता है। अपना हाथ "जगन्नाथ" के बदले अपना हाथ "मोबाइल-साथ" हो गया है। हाथ और मोबाइल का अब चोली-दामन का साथ हो गया है, अगर किसी हाथ में मोबाइल ना हो तो उस हाथ की वैधता पर शक होने लगता है। कई बुद्धिजीवीयो का भी मानना है की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस की वर्तमान दुर्दशा के पीछे भी यहीं  कारण है कि उसके चुनाव चिन्ह "हाथ" में मोबाइल नहीं है जिससे देश का युवा, राहुल गांधी के पार्टी उपाध्यक्ष होते हुए भी कांग्रेस से कनेक्ट नहीं कर पा रहा है।


तारीख: 18.06.2017                                    अमित शर्मा 









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