सही हैं बॉस

विज्ञानियों ने पेट्रोल को सबसे ज्वलनशील पदार्थ माना हैं लेकिन अगर प्राणीमात्र की बात करे तो "बॉस" नाम का प्राणी सबसे ज़्यादा ज्वलनशील माना जाता हैं । "दूध के जले" , भले छाछ फूंक-फूंक कर पीते हैं लेकिन "बॉस के जले" तो ऑफिस की कैंटीन में "कोल्ड -कॉफी" भी फूंक- फूंक कर पीते हुए देखे जाते हैं। पेट्रोल के भाव तो फिर भी रोहित शर्मा या शिखर धवन के द्वारा बनाए गए रनो जितने कम भी होते रहते हैं लेकिन बॉस के भाव तो मोदी जी के विदेशी दौरों की तरह बढ़ते ही रहते हैं। 

कोई भी बॉस भले कितना भी शुद्ध शाकाहारी क्यों ना हो पर जब बात अपने अधीनस्थ कर्मचारियों का दिमाग खाने की हो तो वो शाकाहार की अवधारणा को "ताक" में रख बस दिमाग खाने की "ताक" में रहता हैं। तकनीकी दृष्टिकोण से देखा जाये तो "बॉसगिरी" और "भाईगिरी" में बस केवल इतना ही फर्क होता हैं की भाईलोग आम जनता से 7 दिन में केवल एक बार हफ्ता वसूल करते हैं जबकि बॉस अपने कर्मचारियों से सोमवार से लेकर शुक्रवार/शनिवार तक हर रोज़ कई बार (मानसिक प्रताड़ना रूपी) हफ्ता वसूलते हैं। मोदी जी की तरह, हर बॉस का बचपन से यहीं सपना होता हैं की वो अपने स्टाफ की हर आस का हास करके ,उन्हें निराश करके , उनके जीवन से परिहास करता रहे। 

स्वयं द्वारा की गयी गलतियां बॉस को "कोयला-घोटाले" के "जीरो लॉस" की तरह लगती हैं जबकि अपने कर्मचारियों की गलतियां "घर वापसी " कार्यक्रम की तरह अक्षम्य और खतरनाक लगती हैं। ज़्यादातर बॉस अपने कर्मचारियों को शान से परेशान करते हैं और उनका इतना खून चूस लेते हैं की अगर गलती से कोई बॉस का सताया कर्मचारी, प्रभु की माया से, अपनी काया से रक्तदान करने किसी रक्तदान शिविर में पहुँच जाता हैं तो शिविर आयोजक मेडिकल जाँच करने के बाद पूछ लेते हैं, "भाईसाहब आप खून देने आये हैं या लेने"। 

बॉस खुद भले ही कितना भी "आराम पसंद" क्यों ना हो लेकिन "कमला पसंद" खाते हुए अपने स्टाफ को हमेशा "काम पसंद" ही देखना चाहता हैं। "बॉसगिरी" का पहला सिद्धांत ही हैं की जैसे "विमल" पान मसाले के "दाने-दाने" में "केसर" का दम होता हैं ठीक उसी प्रकार से स्टाफ को कंपनी से मिलने वाले "आने -आने" में उनके काम का दम होना चाहिए। बॉस को अपना "देर आए" भी "दुरुस्त आए" लगता हैं लेकिन कर्मचारी का "देर आया ", "अंधेर आया" जैसा लगता हैं। कुछ बॉस तो इतने उदारमना होते हैं की अपने कर्मचारियों की भौतिक उन्नति के साथ - साथ आध्यात्मिक उन्नति भी देखना चाहते हैं इसीलिए वो ऑफिस में नरक जैसा वातावरण बना कर रखते हैं ताकि मरने के बाद अगर किसी कर्मचारी को नरक में जाना पड़े तो उसे कुछ भी नया नहीं लगे। 

अपनी छुट्टियों का वार्षिक कार्यक्रम (लीव प्लानर ) बॉस सालभर पहले से ही अपने स्टाफ को बता देता हैं लेकिन जब कोई स्टाफ मेंबर बॉस से छुट्टी मांगने जाये तो उसका रिएक्शन ऐसा होता हैं मानो छुट्टी ना माँगकर स्टाफ मेंबर ने उसका ए.टी. एम. पिन मांग लिया हो। हर बॉस को लगता हैं की सारे पारिवारिक कार्य / मजबूरिया , रिश्तेदारों की शादिया , बच्चों की पढाई और एडमिशन सम्बन्धी कार्य केवल उसी को आ सकते हैं क्योंकि वो मानव मात्र को, मोदी जी के बाद, ईश्वर का दिया हुआ दूसरा उपहार हैं और बाकि सभी कर्मचारी तो ऑफिस के ई. आर. पी. सॉफ्टवेयर से डाउनलोड कर नियुक्त किये गए हैं इसीलिए इनको छुट्टी की ज़रूरत पड़ ही नहीं सकती और मान लो आपातकालीन परिस्थियों में "छुट्टी" देनी भी पड़े तो उससे पहले कर्मचारी से "कट्टी" होना ज़रूरी हैं। आजकल कामकाजी लोगो के स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता इसीलिए भी ज़रूरी हैं क्योंकि बाज़ारू जंक फ़ूड के साथ साथ समय -बेसमय बॉस की डांट भी उनके स्वास्थ्य के लिए चुनौतियां खड़ी कर रही हैं । लेकिन ज़ुल्म की इंतिहा तो तब हो जाती हैं जब सुबह से शाम तक बॉस की डांट खाने वाले इंसान को , घर के लिए निकलते समय केवल ये कहने के लिए बीवी का कॉल आता हैं की, "मेरी तबियत ठीक नहीं हैं, रात का खाना बाहर से लेते हुए आना"। 

प्राचीनकाल से ही हमारे यहाँ मान्यता रहीं हैं की "जाकी रही भावना जैसी ,प्रभु मूरत देखी तिन तैसी" इसीलिए ऐसी बात नहीं की बॉस केवल ज्वलनशील या खूनचूसक ही दिखाई देता हैं। कुछ लोगो को बॉस गुड जैसा मीठा भी लगता हैं इसीलिए वो "पेस्ट कंट्रोल" किये हुए ऑफिस में भी बॉस के इर्द-गिर्द की मक्खियो की तरह भिनभिनाते रहते हैं। सामान्य लोग भले ही इसे चापलूसी समझे लेकिन असल में प्रोफेशनल लोग इससे बिना "वर्क" के बॉस से "नेटवर्क" जोड़ने का काम करते हैं और ये नेटवर्क इतना मजबूत होता हैं की बिना किसी "टावर" के ही इंसान को सफलता का "वर" करवा देता हैं। "बॉस इज़ ऑलवेज राइट" कहते कहते ये लोग ऑफिस के भीड़ भाड़ भरे ट्रैफिक में से अपनी गाड़ी, रॉंग (राइट) साईड से भी मंज़िल तक पहुँचा देते हैं। 


तारीख: 08.06.2017                                    अमित शर्मा 









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