चोर दरवाज़ा


          केशव चैबे अभी उमेश के सामने से अपनी लग्ज़री गाड़ी में बैठकर निकला था। केशव चैबे को देखकर उमेश के तन-बदन में आग़ सी लग जाती थी। हालांकि केशव एक डिप्टी कलेक्टर था, और उमेश मामूली सा दैनिक वेतन भोगी ड्राइव्हर। दरअसल केशव और उमेश दोनो एक ही गाँव के रहने वाले थे। पहले वे दोनांे ही एक दबंग आइएएस अधिकारी खांडेकर साहब के बगंले पर दैनिक वेतनभोगी के रूप में काम किया करते थे। केशव चपरासी था जबकि उमेश ड्राइव्हर था। खांडेकर साहब दलित जाति के आईएएस अधिकरी थे। वैसे तो सभी आईएएस अधिकारी दबंग होते हैं, पर खांडेकर साहब दलित होने के बावजूद दबंग थे, और सारे राज्य में उनकी तूती बोलती थी। ऐसा कहा जाता था कि वे तो राज्य के मुख्य  सचिव से भी ज्यादह पाॅवर-फुल हैं। 


          बारह साल पहले जब खांडेकर साहब उनकी तहसील के एसडीएम बनकर आये थ,े तभी केशव और उमेश एक साथ उनके बंगले में ड्यूटी किया करते थे। उमेश ने खांडेकर साहब से बडी़ उम्मीदें लगा रखी थी कि वे दलित जाति के हंै, तो किसी तरह उसे रेगुलर करा देंगे। आज भी इसी उम्मीद पे वह उनके साथ काम कर रहा था। केशव मूल रूप से उत्तर-प्रदेश की किसी ऐसी जगह का रहने वाला था, जहाँ बाल-विवाह प्रचलित था। केशव का भी बाल विवाह हुआ था, पर गौना नहीं हुआ था। केशव के पिता उमेश के गांव में पण्डिताई करते थे। केशव और उमेश दोनांे ने साथ-साथ ही बारहवीं पास किया था, और वे दोनों एक साथ ही एसडीएम के बंगले में ड्यूटी करते रहे। सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा। इस बीच केशव अपनी पत्नी का गौना करा के ले आया था। उसने खांडेकर साहब से निवेदन किया कि सर अब मैं फ़ैमिली वाला हो गया हूँ। आप मुझे बंगले के सर्वेण्ट क्वार्टर में रहने की जगह दे दें, तो बड़ी़ मेहरबानी होगी।

 

केशव ने यह भी कहा था कि सर मेरी जोरू रसोई बनाने में मदद कर दिया करेगी। साहब की अनुमति मिलने के बाद वह अपनी पत्नी के साथ सर्वेण्ट क्र्वाटर में शिफ््ट हो गया था। उसकी पत्नी हमेशा ही एक लंबा सा घंूघट डाले रखती। खांडेकर साहब की अभी शादी नहीं हुई थी। हाँलाकि साहब के घर पर अलग से एक पुरूष कुक भी था। वह भी दैनिक वेतनभोगी ही था। केशव ने बडी़ चालाकी से अपनी बीवी की एण्ट्री साहब की रसोई में करा दी थी। अब साहब के लिए वही खाना बनाने लगी थी। एक दिन अचानक पता चला कि कुक को हटा दिया गया है, और अब कुक की मजदूरी केशव की पत्नी को मिलने लगी है। यूँ तो केशव की पत्नी एक लंबा सा घंूघट डाली होती थी, पर बंगले के अंदर प्रवेश करते और निकलते हुए उसका घूंघट हट जाया करता था। इसी दौरान उमेश ने देख लिया था कि केशव की वाईफ़ तो बहुत ख़ूबसूरत है। हालाँकि उमेश के सामने वह हमेशा ही घंूघट लगाई रखती थी।

 

धीरे-धीरे खांडेकर साहब केशव के साथ मित्रवत व्यवहार करने लगेे थे, जबकि उमेश के साथ अब भी उनका व्यवहार रूखा ही था। कार्यालय के सारे लोग कानाफूसी करने लगे थे कि पेटीकोट का जादू चल रहा है। एक बार तो बंगले के माली ने केशव की पत्नी और खाण्डेकर साहब को आपत्तिजनक स्थिति मेें भी देख लिया था। 


       ख़ैर साहब के आॅफिस में क्लर्क की नियमित भर्ती होनी थी। पद एक ही था। इस पद के लिये और लोगों के अलावा, केशव और उमेश ने भी आवेदन किया था। उमेश ने सोचा था कि साहब भी दलित जाति के हैं तो वे पक्के तौर पर इस पद पर मुझे ही नियुक्त करा देंगे। सो वह एक दिन वह निवेदन करने उनके पास पहुँच गया। इस पर उन्हांेने उसे फटकारते हुए कहा कि मै किसी के लिए भी एप्रोच नहीं करता। तुम में यदि योग्यता होगी, तभी तुम्हारा सलेक्शन होगा। फिर उन्हांेने बताया कि पद एक ही है इसलिए इसमें आरक्षण लागू नहीं होता है। यदि आरक्षित पद होता तो मै कुछ कर सकता था। ख़ैर हज़ारो लोगो के बीच में से उस पद पर केशव का सलेक्शन हो गया था।

 

पेटीकोट का जादू चला हुआ स्पष्ट नज़र आ रहा था। कुछ महीनों बाद साहब जिला पंचायत के सीईओ बना दिये गये। वे केशव और उमेश को भी अपने साथ जिले में ले गये। क्लर्क होने के बावजूद केशव अब भी साहब के सर्वेण्ट क्वार्टर में ही रहता था। उधर उसकी पत्नी दिन ब दिन निखरती जा रही थी। अब तक तो घूंघट पूरी तरह खत्म हो गया था, और वह बेहद बेलौस हो चली थी। उमेश उससे पूछता अरे भाभी, हमंे चाचा कब बना रही हो। इस पर वह शरारती अंदाज़ में कहती-देवर जी अभी तो हमारे खेलने-खाने के दिन हैं। 


         इसी बीच साहब ने अपनी ही जाति की एक आईएएस लड़की से शादी कर ली थी। हालाँकि वह पडो़सी राज्य में प्रतिनियुक्ति पर पदस्थ थी। साहब के लिए उसे अपने राज्य में लाना कौन सी बडी़ बात थी। ख़ैर उनकी पत्नी कभी-कभार ही आती थी। इस दौरान केशव की पत्नी पूरे समय लम्बे घंूघट मे ही नज़र आती थी। दो साल के अन्दर खाण्डेकर साहब कलेक्टर बन गये थे। केशव ने प्राईवेट परीक्षार्थी के तौर पर एक रात में पढ़कर पास होने वाली कंुजी पढ़कर अपना ग्रेजुएशन पूरा कर लिया था। साहब ने अब भी दोनांे को अपने साथ ही रखा था। केशव यहां फिर से सर्वेण्ट क्वार्टर में शिफ््ट हो गया था, जबकि उमेश वाचमेन वाले बेहद छोटे से कमरे में रहने लगा था। अब साहब के व्यवहार में यह परिवर्तन आ गया था कि वे उमेश से भी अच्छे से बर्ताव करने लगे थे। एक-दो बार उन्होंने उससे कहा था- तेरी तो क़िस्मत ही ख़राब है, जो तू रेगुलर नहीं हो पा रहा है। उमेश ने नियमित हो जाने की आस में अब तक शादी नहीं की थी। 


           साहब की पत्नी को पडो़सी राज्य वाले छोड़ नहीं रहे थे, सो वह कभी-कभार ही यहां आ पाती थी। इस बीच एक नियम के तहत विभागीय परीक्षा लेकर क्लर्क को तहसीलदार बनाने का आदेश आ गया। केशव की तो बांछे खिल गई। विभागीय परीक्षा का आयोेेजन कलेक्टर के द्वारा ही किया जाना था। इस पद के लिये तीन वर्ष का राजस्व विभाग में काम करने का अनुभव अनिवार्य था। साथ ही ग्रेजुएशन भी जरूरी था। केशव के पास ये दोनांे योग्यताएं थीं, और तीसरी तथा सबसे बड़ी योग्यता थी उसकी बेहद ख़ूबसूरत बीबी। अब हर कोई कहने लगा कि यह नियम तो केशव को ध्यान में रखकर ही बनाया गया है। जेैसा कि उम्मीद थी, इन योग्यताओं के बूते पर और साहब की मेहरबानी से केशव तहसीलदार बन गया था। उसका बस चलता तो वह तहसीलदार बनने के बाद भी सर्वेण्ट क्वार्टर में ही रहता, पर अब चंूकि पद प्रतिष्ठापूर्ण हो गया था, और उसकी पोस्टिंग तहसील में हो गई थी, सो उसे जाना ही पड़ा था। लेकिन उसकी बीबी अब भी वहीं सर्वेण्ट क्वार्टर में रहकर कुक का काम करती थी। किसी को कानों-कान ख़बर नहीं हो पाई थी, और उसकी पत्नी दैनिक वेतनभोगी से नियमित कुक हो चुकी थी। 


            अब साहब वरिष्ठ हो रहे थे, सो उनकी नियुक्ति अलग-अलग विभागांे में विशेष सचिव के रूप में होने लगी थी। उधर विभाग में प्रमोशन पा-पाकर केशव भी डिप्टीकलेक्टर बन चुका था। साहब जिस भी विभाग में जाते, उसे अपने विभाग में ही प्रतिनियुक्ति पर मलाईदार पदों पर रखते। वे अपने प्रभावों का इस्तेमाल करते हुए केशव को अपने बंगले से सटा हुआ बंगला ही दिलाते । और सबसे पहला काम यह होता कि दोनांे बंगलों के बीच की बाउण्ड्रीवाॅल में एक चोर दरवाज़ा बनवाया जाता। अब तक बारह वर्ष हो चुके थे। उमेश अब भी कलेक्टर दर पर साहब के घर पर ड्रायवरी करता था, और उसके साथ का केशव आज कहाँ से कहाँ पहुँच गया था। हालाँकि साहब उमेश पर पूरा भरोसा करते थे, पर जब भी नियमित करने की बात आती, तो साहब कहते तेरी तो क़िस्मत ही ख़राब है रे। बंगले के गैराज़ में गाडी़ पार्क करते हुए उमेश की नजरें गैराज़ के पीछे बने चोर दरवाज़े पर पड़ती और उसके मुँह से आह निकल जाती।


तारीख: 18.06.2017                                    आलोक कुमार सातपुते









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