हम बस अब एक कान से सुनते है

हम बस अब एक कान से सुनते है
प्रश्न करने की इच्छा और प्रवृत्ति जैसे समाप्त हो गई है

एक ही side से लड़ते है
एक ही विचारधारा like, share  और subscribe करते है
आदमी वही खाता है, सोचता है, प्रोत्साहित करता है और सो जाता है
निश्चय और दृढ़निश्चय बन जाता है
कुछ दिनों बाद उसे फिर एक ही side का दिखता भी है
एक कान का बहरा एक आँख का अंधा धीरे धीरे बन जाता है

सामने वाले का सुनाई नहीं देता
नहीं देता या नहीं दिया जाता यह आप सोचिये
अपने दल अपने नेता के काम को राष्ट्रहित, 
जनहित या समाजहित जैसे arguments में लपेट दिया जाता है
खुद के दल की गलतियाँ दिखती  ही नहीं 
सब मनुष्य ही तो है, गलती सब से होती है
पर अपनी गलती को ना मानना या उसे opposition की conspiracy 
घोषित कर देना ही बोलचाल हो गया है
Photoshop  अब camera  से ज्यादा शक्तिशाली हो गया है

सामने वाले से बात करने जाओ तो अब वह आपसे बात नहीं करता चिल्लाता है
कल मैंने अपने भाई से कुछ पूछा तो उसने चिल्ला के जवाब दिया
ध्यान से देखा तो उसके कान में earphone लगे थे
जिनको कम सुनाई देता है वह चिल्ला के ही बात करते है

मुझे नहीं पता इसका endgame क्या है?
यह शोर यह हल्ला क्या long -term में sustainable है ?
इसका decision मै नहीं दे सकता
सभी ग्रन्थ यही सीखाते है की सामने वाले की सुन लेनी चाहिए
आप भले ही नास्तिक हो पर time-tested wisdom में तो मान ही लेना चाहिए

मेरी तो अभी के लिए यही गुज़ारिश है की
एक कान में फ़ंसा ignorance  का कपास निकालिये
धीरे धीरे आपकी नज़र भी normal होने लगेगी                              
 


तारीख: 09.06.2017                                    अंकित चिपलूनकर









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