पिरोए हैं तुमने ही मोतियाँ
टपक जो पड़ती हैं कभी आँसू बनकर
कभी रह जाती हैं पलक पर ही
लुका छिपी खेलती
कभी गले में ही अटक जाती हैं
तब, जब लपेट लेते हो खुद से मुझे
और इनके गिरने के पहले ही पूछ देते हो
"आज नहीँ रोई तुम"
ये जल तो साथी हैं अब
किसी ना किसी रूप में
और साथ निभाती है इनका सर्वदा
मेरी मुस्कुराहट
जिसके साहूकार भी तुम ही हो
पर थोड़े अजीब से, ना ब्याज ना मूल मांगने वाले