अंतिम संकल्प

विष बोली कर श्रवण मैं,
सांस ना मिले इस पवन में,
ऊंच नीच देख लोक काल,
उलझाये मुझे मेरे स्वपन जाल,

अगर उठाये मैंने वदन बचाव में,
करना पड़ा सहन सभी इन घाव में,

रख कर ख़ुशी सब ताक में,
जब चला निर्भय तो मिल गया खाख में,
देखूं दूर कहीं तलाश में,
दोष खुदी में पाता हूँ,
चाहता हूँ कहना बहुत कुछ,
पर कह कुछ नहीं पाता हूँ,

विलाप में करता हूँ,
पर अश्रु विलुप्त रहते हैं,
कोई समझा नहीं यह राज़,
उल्टा पीढ़ मुझे और देते है ,

आंसू गिरते उनके जब सुनते मेरी बात में,
अम्बर को रोता देखा है मैंने घनी रात में,
 समझ चूका हूँ अब कोई नहीं मेरे साथ में,
नहीं किसी का हाथ अब मेरे हाथ में,

रात घनी अभी भी कटी नहीं,
चल रहा हूँ में,
नम हूँ तन से,
लेकिन अंदर कहीं सुलग रहा हूँ में,

ना शिकवा किसी से,
ना कोई शिकायत है,
ना प्यार किसी का,
ना किसी की इनायत है,

अजीब यह इत्तफाक है,
ना यह सब  कोई लतीफा है,
ना कोई मज़ाक है,

चेहरे पर फिर भी मुस्कान है,
लगने लगा आगे रास्ता आसान है,

रखता हूँ अब कलम,
महान यह क्षण,
यह पल है,
महान यह मेरा अंतिम संकल्प है॥ 
 


तारीख: 14.06.2017                                    सूरज विजय सक्सेना









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