यह माया या अतृप्त तृष्णा
या सचमुच की प्यास है-
कभी दरिया की ख्वाहिश
कभी समन्दर की तलाश है।
यदि दरिया मिल भी जाए तो कितना पी लोगे
इस तरह घुट- घुटके क्या जिन्दगी जी लोगे?
हर-पल भटकने से भी खुशी पास नहीं आती
तरसती हुई जिन्दगी कभी रास नहीं आती।
सबकुछ पाकर भी
तू कितना उदास है,
कभी दरिया की ख्वाहिश
कभी समन्दर की तलाश है।
रेगिस्तान के उद्भ्रान्त मृग की कहानी सामने है
कौन आता ही यहाँ भटके का हाथ थामने है,
जो पास, उसी से दग्ध ह्रदय सिक्त कर
तृष्णा के अनन्त प्रलोभन से खुद को रिक्त कर।
जिन्दगी कभी तृप्ति नहीं
तृप्त होने की एक आस है,
कभी दरिया की ख्वाहिश
कभी समन्दर की तलाश है।