बहुत दूर

 

पहली बार जब देखा था था तुम्हें
साँस रुक सी गयी थी।
लेकिन पूरे बस स्टॉप पे मैं अकेला ही
बुत बने नहीं खड़ा था।
तुमसे नज़र हटा नहीं पाया
कि हमारे मोहल्ले में यह नया कौन आया?


दिवाली के दिन तुम फिर दिखी मुझे
आयी थी जब मेरे घर।
सारी मन्नतें एक साथ पूरी हो गयी मेरी
ऐसा लग रहा था मुझे।
क्रीम कलर का सुट पहना था तुमने
क्या कहर ढा रही थी तुम।


सोचा कि बात तो करूँ तुमसे
पर हिम्मत ना जुटा पाया।
बेवकूफ़ ही तुमने समझा होगा मुझे
जब तुम्हें देखके मैं दूर भाग गया।
हमारी लुका-छिपी ऐसे ही चलती रही
कब दिन महीने और फिर साल बन गए
पता ना चला।
फिर एक दिन पिताजी का तबादला हो गया
और बिना तुमसे मिले मैं बहुत दूर चला गया।


तारीख: 03.11.2017                                    अविनाश कुमार सौरभ









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