इक तितली

आज सुबह 
कुछ जल्दी खूली आंख 
बाहर निकला 
इक तितली, 
हाथ पर आ बैठी 
और 
लगी मुस्कुराने मेरी तरफ.... 
मैं भी हंस दिया 
तो, 
मेरे गालों को छूकर, 
दूर जा बैठी
और 
ले गयी मुझे भी 
अपने साथ, 
कहीं दूर 
बचपन की गलियों में 
जब, 
इक तितली को पकङते
जा टकराया था मैं 
तितली से भी, 
कहीं ज्यादा, 
खुबसूरत सी तितली से..... 

कक्षा आठ में 
थी तो वो मेरे साथ
पर ना जाने 
अब तक कहां गुम थी 
वो भी तो 
आज की तितली के जैसे ही 
मुस्कुराई थी 
और मेरा भी 
प्रत्युत्तर 
आज सा ही था..... 

शायद वक्त, 
खुद को दोहरा रहा था 
कि, 
वो भी 
यूं ही
थोङा सा, अधूरा सा 
छूकर
कहीं दूर उङ 
किसी और पौधे की बांहों में, 
जा बैठी थी 
ना जाने क्यों 
आज फिर, 
इक अजीब सा खालीपन 
दस्तक देने लगा...... 

मुस्कान और आंखो की नमीं
दोनों एक साथ चले आये 
गुम था मैं कहीं, 
कि तभी
बच्चा बाहर आया 
और
मेरी नमीं को देख, 
बोला, 
क्या हुआ
जवाब तो नहीं था मेरे पास 
बस
इतना ही कह पाया 
कि 
इक तितली 
आंखो में 
अपने पंख छूआ कर निकल गई....... 
 


तारीख: 06.06.2017                                    उत्तम दिनोदिया









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