कल से लेकर आज-तक
इस धरा से
उस धरा तक
अर्थ -हीन लग रहा हूँ,
अरमान आज एकाएक
जगे है...बालपन से
और मैं चाँदनी के ओटे में
जग रहा हूँ,
काश ! तू शामिल हो जाती
मेरी स्वीकृति में
मग़र अफ़सोस...
छंदों को सपनों से
रंग रहा हूँ,
है अम्न के विस्तार में
कुछ खो सा गया...
सभी चुप
कुछ निशाँ है और यह
चाँदनी,
कायम हूँ लौटकर आ तो सही...
हाँथ में जो देखते हैं
लकीरें प्रेम के
वह किधर को चले गए
मै आउंगा
तू है जहाँ ठहर वहीं,
या, आ सिर्फ एक बार
इरादे तो बता रागिनी
मैं अभी भी तेरे लिए
वही रहबर सा हूँ ...