जॉर्ज एवरेस्ट की डायरी

 

मसूरी के पहाड़, देहरादून की गोद में,

जॉर्ज एवरेस्ट के पास, एक छोटा सा कैफ़े।

वही बेंच, वही कॉफ़ी, वही धुंध से ढका मंज़र,

बस तुम नहीं हो, और ये वक़्त, ठहरा हुआ सा अफ़साना।

 

हर बार आता हूँ, उस कस्टमर फीडबैक बुक को खोलता हूँ,

जैसे कोई पुरानी चिट्ठी, जो कभी भेजी नहीं गई।

एक पन्ना पलटता हूँ, अपनी पिछली इबारत पढ़ता हूँ,

फिर एक नया पन्ना, तुम्हारे नाम लिखता हूँ, अनकही।

 

कभी मौसम का हाल लिखता हूँ, कभी चाय का ज़ायका,

कभी उस रास्ते का जिक्र, जहाँ हम साथ चले थे।

कभी अपनी तन्हाई लिखता हूँ, कभी तुम्हारी हँसी,

कभी उन वादों का ग़म, जो अधूरे रह गए थे।

 

ये डायरी, अब एक राज़दार बन गई है,

मेरी मोहब्बत का, मेरे इंतज़ार का, मेरी उम्मीद का।

हर पन्ना, एक टुकड़ा है, मेरी रूह का,

जो शायद, कभी तुम तक पहुँच जाए, किसी इत्तेफ़ाक से।

 

सोचता हूँ, कभी तुम आओगी इस कैफ़े में,

अकेले, या शायद किसी और के साथ।

उस किताब को खोलोगी, पन्ने पलटोगी,

और तुम्हारी नज़र, मेरे लफ़्ज़ों पर ठहर जाएगी।

 

पढ़ोगी तुम, उन अनकही बातों को,

उन अधूरे ख़्वाबों को, उन बेनाम जज़्बातों को।

शायद, तुम्हारी आँखों में, एक आँसू आ जाए,

शायद, तुम्हें फिर से, हमारी याद आ जाए।

 

पर शायद, तुम बस मुस्कुरा दोगी,

एक अजनबी के लफ़्ज़ समझकर, पन्ना पलट दोगी।

और मैं, फिर एक साल बाद,

एक और पन्ना भर दूँगा, इसी उम्मीद में...

कि शायद... कभी तो...

ये लफ़्ज़, तुम तक पहुँचेंगे...

किसी तरह...

तुम्हारे दिल तक।

 


तारीख: 24.02.2025                                    मुसाफ़िर




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