हमारा बचपन वाला गाँव

घनी पकड़िया, बूढ़ा बरगद, ना पीपल की छाँव.

अब कैसा हो गया हमारा, बचपन वाला गाँव.

 

अमराई ना महुआ जामुऩ, ना वो बाग़ बगीचे.

लुका छिपी खेला करते थे, जिन पेड़ो के नीचे.

रंग बिरंगी नहीं चिरैयाँ, उड़ती नील गगन मे.

गौरैया अब नहीं फुदकती, है घर के आँगन मे.

ना तो कोयल कूँ कूँ करती, ना कौओं को कांव.

अब कैसा हो गया हमारा, बचपन वाला गाँव.

 

छोटे छोटे तालाबों में, खिलता नील कमल था.

सरिता की धारा में जैसे, बहता गंगाजल था.

बगुला, सारस, बतख, टिटहरी, से गुलज़ार किनारे.

अब न कहीं दिखाई पढ़ते, तो रमणीक नज़ारे.

ना केवट पतवार कहीं अब, ना छोटी सी नाव.

अब कैसा हो गया हमारा, बचपन वाला गाँव.

 

सखियों की अब हंसी, सुनाई पड़ी नहीं पनघट में.

नहीं झांकता चाँद, ऩज़र आता है अब घूँघट में.

अब परदेस गए साजन की, यागें नहीं सतातीं.

अब ससुराल गयी बिटिया की, चिट्ठी नहीं रुलाती.

लोगों के अब नहीं, दिखाई पड़ते निश्छल भाव.

अब कैसा हो गया हमारा, बचपन वाला गाँव.

 

झुक झुक कर स्वागत करती, अब दिखती नहीं पताम.

नहीं राहगीरों से कहते, भैया 'सीता-राम' .

खेतों की पगडण्डी पर, अब नहीं साइकिल चलती.

टूटी फूटी सड़कों पर, अब मोटर धुआं उगलती.

नहीं बटोही के थकते थे, मीलों चलकर पाँव.

अब कैसा हो गया हमारा, बचपन वाला गाँव.

 

ईंट और पत्थर से निर्मित, अब प्रत्येक भवन है.

लेकिन रहने वालों में अब, वो न अपनापन है.

कच्ची दीवारों पर केवल, पड़े हुए छप्पर थे.

संस्कार थे लोगो में तब, वे ही सचमुच घर थे.

छोटे सभी छुआ करते थे, रोज़ बडों के पाँव.

अब कैसा हो गया हमारा, बचपन वाला गाँव.

 

घनी पकड़िया, बूढ़ा बरगद, ना पीपल की छाँव.

अब कैसा हो गया हमारा, बचपन वाला गाँव.


तारीख: 25.07.2017                                    रमा शंकर मिश्र 'उर्मिलेश'









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