एक अदम्य जिजीविषा,
मृत्यु के निर्मम जबड़ में
फँसकर भी, क्षण-क्षण,
बूँद-बूँद सम,
जीवन-अमृत का कण-कण
पीने की उत्कट इच्छा
काल की हर एक
वक्र,गृध-दृष्टि को,
हर एक कालकूट-वृष्टि को
अमृतसृष्टि में परिणत करती
एक विलक्षण, उत्कट,
नीलकंठ इच्छा,
काल के विकराल ज्वाल में
यह जीवन उत्तीर्ण करता
रहता है हर एक अग्नि-परीक्षा
उस जगद्गुरु के आश्रम में,
कुदरत द्वारा निर्धारित
हर मापदंड में,
जीवन लेता, हर एक
चुनौती से एक दीक्षा
हर परिस्थिति के साये में
पल-पल ढलते जाने की
अक्षुण्ण इच्छा,
पग-पग चलते जाने की
अपरिमित, अतुल्य इच्छा
जीवन-बलि लेते
उस बलि से,
इस वामन बहुरूपिये ने
सदा ही पायी तीन पग,
कल,आज,कल,
ये तीन-तीन विस्तीर्ण पग
रखने को भूमि की भिक्षा
जिजीविषा, हाँ, जिजीविषा,
चाहे कैसी भी हो विभीषिका,
इच्छाशक्ति, बनकर एक सरिता
भीमकाय चट्टानों को भी
धूलि-धूसरित सा कर-करके
जीवन-धारा बन ही जाती है
हर एक सुरुचि के हर एक
निर्मम निर्णय को
मानो ठेंगा सा दिखलाकर
एक अजर-अमर-अटल ध्रुव तारा
बन ही जाती है
मृत्यु मेनका बनकर चाहे
कितना भी तप भंग करे,
एक क्षणिक प्रमाद,
बनकर अवसाद,
जीवन को चाहे
कितना भी तंग करे,
यह विश्वामित्र जब-जब
तप पूरा करने की ठानता है,
संकल्प का भगीरथ बन,
जिजीविषा खुद एक
दिव्य सा तीरथ बन,
साँसों की गंगा-धार
बहाकर ही मानता है
बन अगस्त्य, हर दृढ़ निश्चय,
कर प्राणशक्ति का अक्षय संचय,
अवरोधों के हर सिंधु को
उदरस्थ करके ही छोड़ता है
सुरसा बन, मुँह करके विशाल,
भस्मासुर बन करतल पसार,
विपदा, बन एक भयंकर ज्वार,
खुद आये करने को संहार,
फिर भी जीवन,
अपनी सारी क्षमता बटोरकर,
बूँद-बूँद, श्वासामृत को इस
अक्षय-पात्र में निचोड़कर,
काल के हर चक्रव्यूह को
तोड़-तोड़कर,
झंझावातों को,
हाथ पकड़ कर,
मोड़-मोड़कर
खुद का, खुदी से, फिर से
नाता जोड़-जोड़कर
हाँ, बिखर-बिखर,
फिर निखर-निखरकर,
कंकर से शंकर बनकर,
हर एक भयंकर को करके
फिर से अभयंकर
सब कुछ सँभाल लेता है
टेढी़ मेढी़, ऊबड़-खाबड़ या पथरीली
पग-पग पर एक चुभन बनती,
हर एक कँटीली
राह पर अपने सफर को
ढाल लेता है
हाँ, जिंदगी जिंदादिली का नाम है
मुर्दादिली का नहीं,
यहाँ कुछ काम है
आशा ही इस जीवन का
एकमात्र शरणधाम है
जो फूल बन,
हर शूल पर,
भीनी सी खूशबू में
कण-कण,
क्षण-क्षण
खुद को ढाल लेता है