कोलकाता की गुम कविताऐं

 

कितनी कविताएँ चलती थीं संग,

कोलकाता के उन अकेले सफ़रों में, 

कभी अधलिखी टिश्यू पेपर पर,

किसी पब के धुँधले कोनों में।

 

 कभी होटल के तकिये नीचे,

दबी मिली कोई पुरानी याद,

कभी नशे में धुत्त ज़ुबाँ से,

निकले ग़ज़ल के दो अल्फ़ाज़।

 

 

कभी ऑफिस की उस भीड़ में,

बनते नए रिश्तों पर कुछ पंक्तियाँ,

या ट्रैफिक में फँसे मन की,

उलझन सुलझाती कुछ युक्तियाँ। 

 

कभी रेल के डिब्बे में बैठी,

पटरी की थाप पे सिर धुनती,

धीमे-धीमे लय पकड़ती,

कोई कविता मुझसे आ मिलती।

 

 

कभी खिड़की के बाहर दिखती,

गुज़रते घर की छत पर कोई,

मुस्कुराती, हाथ हिलाती,

जैसे मेरी अपनी हो कोई। 

 

पीछे जाता, पकड़ने उसको,

तो लफ़्ज़ अधूरे रह जाते, 

वो पल, वो ख़याल, वो कविता,

बस यादों में ही रह पाते।

 

अब जब ये सारी कविताएँ,

इक संग्रह बन छपने निकली हैं, 

तो कोलकाता की यात्राएँ,

कितनी ख़ाली, सूनी लगती हैं। 

 

सड़कों पर अब कोई कविता,

नज़र नहीं आती है मुझको, 

जैसे हुगली की लहरों संग,

सब सागर में जा पहुँची हों।

 

जैसे पूरे शहर की नज़्मों ने,

मुझसे मुँह फेर लिया हो ऐसे, 

कहती हों, "कितने ओछे निकले तुम! 

 

कितने खुदगर्ज़ थे वैसे!"

"इस शहर की रूह में बसती थीं, 

जो आज़ाद हमारी पंक्तियाँ, 

उन्हें क़ैद किया तुमने पन्नों में, 

अपने स्वार्थ के लिए!"


तारीख: 22.05.2025                                    मुसाफ़िर




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है