माँ

मिट्टी के वो खेल-खिलौने 
याद दिलाती आई माँ,
माज़ी की धुंधली यादों में 
लोरी गाती आई माँ!

दुबली-पतली भोली सूरत 
दिल पर ग़म का बोझ लिये 
फटी हुई आँचल से अपनी
प्यार लुटाती आई माँ!

राह देखती होगी अब भी 
व्याकुल होकर चौखट पे 
शाम-सुबह बैठी चूल्हे में 
आग जलाती आई माँ!

बुढ़ी आँखों में आशा और 
बेबस की तस्वीर छिपाये
दर्दों का सैलाब समेटे
यूँ मुस्काती आई माँ!

कभी स्नेह की हाथ फेरती 
कभी गोद में बैठाती
कान ऐठकर थप्पड़ जड़ती
मुझे रुलाती आई माँ!

वैसे ही चलता फिरता है 
उसकी साया आँखों में 
तन्हाई के आलम में भी 
साथ निभाती आई माँ!


                (माँ की स्मृति में रचित)


तारीख: 12.08.2017                                    कुमार करन मस्ताना









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