मैं ओस थी, तुम दूब
मैं हीन, मैं क्या जानूँ अपना मोल
बस जानूँ कि तू है अनमोल
कहते हो मैंने किया शीतल तुम्हें
सोचो ज़रा
तुम ना होते तो मैं प्रत्यक्ष भी होती कभी ?
गिरते हुए को थाम लिया तुमने
बूँद, हिम, पानी के बीच
मैं खुद का नाम ढूँढती रही
आस जब आँसूं बने, तब
तब इस व्यर्थ को भी नाम दिया तुमने
मैं बेरंग, तुच्छ सी मैं
ना परखा ना सोचा ना तुमने तिरस्कार किया
गोद में जगह दे कर
मेरी सूक्ष्मता को भी इनाम दिया तुमने
मैं ओस थी, तुम दूब