मैं रोया नहीं हूँ

अरसा हुआ, चैन से सोया नहीं हूँ,
हाँ, खुल के कभी भी मैं रोया नहीं हूँ।

उसकी याद की काली बदलियाँ,
वक़्त-बेवक़्त मुझे घेर लेती हैं,
हँसी में लिपटी घड़ियों के दौरां,
भी सहमा के कोने में समेट देती हैं।

शायद, अब तक कुछ ऐसा खोया नहीं हूँ,
इसलिए खुल के कभी भी मैं रोया नहीं हूँ।

जब जगहें एहसास कराती हैं उसका,
और सपने फिर उसे मेरे पास लाते हैं,
जब उपहारों पे उसके नज़र फेरता हूँ,
और तस्वीरों के लम्हे फिर साँस पाते हैं।

इन एहसासों को अब तक डुबोया नहीं हूँ,
क्योंकि खुल के कभी भी मैं रोया नहीं हूँ।

बेआवाज़ ही रोया हूँ जब भी मगर मैं,
अश्कों ने अधरों को चूमा बहुत है,
क्यों चीख न निकली चाहा है फिर भी?
इस सोच में सर मेरा घूमा बहुत है।

सिसकियों को आहों में पिरोया नहीं हूँ,
हाँ, खुल के कभी भी मैं रोया नहीं हूँ।
 


तारीख: 04.07.2017                                    प्रदीप सिंह









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