मालूम नहीं!

मालूम नहीं!

छोड़ कर सब आसानी से भूल जाना मालूम है उसे,

पर यादों की याद में जाना शायद उसे मालूम नहीं,

अपनी ज़िद कहो या मनमानी सब पूरा करना आता है,

पर जिन्हें कुचला राहों में उनके बारे उसे मालूम नहीं ।

मालूम है उसे की दुनिया बड़ी बेरहम जगह है,

जिसपर की थी रहम आखिरी बार उसका नाम उसे मालूम नहीं,

कुछ ना हो समान्य तो मतवाला हो अधीर हो जाता है, 

खुद दर्द और आँसू के सैलाब बांटता है वो उसे मालूम नहीं।

ताकत है बाहों में, केश खिंचना मालूम है बख़ूबी ,

हाँ उन्हीं जुल्फों को सहला कविताएँ सुनाना उसे मालूम नहीं,

वो मर्द सा है भावशून्य मर्दानगी का श्रृंगार करता है,

पर भीतर की रिक्तता के बारे अनभिज्ञ हैं उसे मालूम नहीं।

वो जो भी है लगता है आईना इन बेदर्द फ़िज़ाओं का,

ज़ख्मी प्राणी से भी हालचाल पूछना उसे मालूम नहीं,

भांजना हो बेल्ट-लाठी या कोड़े सब निपुणता से आता है,

पर वही निशान मोहब्बत की मरहम से छुपाना उसे मालूम नहीं ।

चीखना गाली देना शब्दों से दबाना भी खूब आता है,

भले एक पल शांत हो सुनना किसी की कैसे ये मालूम नहीं,

बाँधकर खूंटी में यही दूसरों के अरमानों को भूल गया वो, 

पर ज़ंजीर टूटते भी है ये शायद उसे मालूम नहीं ।

या फिर सब मालूम है नफरत से जुल्म की वो दास्तान लिखता है,

मेरी पहचान तब भी वो लिख नहीं सकता ये बात उसे मालूम नही।

 

 


तारीख: 02.10.2024                                    प्रांजल कुमार




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