मन का मंथन कर डाला मैंने
नित नित चिंतन कर डाला मैंने ।
आलोकित किया अंतर आहों को
पीर से भरी जर्जर राहों को ।
बिखरी बादल का टुकड़ा बन
धूमिल साँझ का मुखड़ा बन।
धुन अपरिचित सुन दौड़ी
पथ प्रमोद का अब भूली।
रिझूँ क्यों ऋतु के परिवर्तन पर
अप्रत्याशित अकथित वर्तन पर।
नहीं- नहीं मैं तो विष का प्याला
मोहक भ्रमित परिमित छाया।
झुलसाती तन को धूप सुनहरी
मरू भूमि की मैं ज्वलंत धूलि।
स्वप्न सुरमई रात की आँखों का
अनंत स्पंदन कंपित तारों का।
००० वंदना अग्रवाल 'निराली'