नारी

सुता बहु कभी माँ बनकर सबके ही दुःख को सहकर
अपने जो फ़र्ज़ निभाती है वही तो नारी कहलाती है

बेटी बहन और माँ का रूप धरकर जो आती है 
सबका पालन पोषण करकर स्वयं तृप्त हो जाती है

पलकर जहां पर बड़ी हुई वह संसार छोड़ चली आती है
अपनी प्यारी बिटिया संग भी यही रीत वो निभाती है

संतान के सुख में सुखी संतान के दुःख से दुःखी
त्याग की इस प्रतिमूर्ति की छटा निराली ही बन जाती है

कभी अजन्मी बिटिया सी वो कोख में मारी जाती है
कभी दहेज़ दानव की खातिर जलते चूल्हे में झोंकी जाती है

जब श्रृंगार कर आती तो वह सबको नयन सुहाती है
कभी बिना श्रृंगार किए वह बस मन में बस जाती है

सड़कों पर आजाद वो दुश्वारी से चल पाती है
गिद्ध लगाए बैठे घात बच बच कर वो जाती है

नारी में है शक्ति सारी राष्ट्रपति भी बन जाती है
दूजी ओर दामिनी जैसी नरक जीवन भी पाती है

नारी काली नारी दुर्गा शक्तिरूप कहलाती है
फिर क्यू नारी इस समाज में अबला सी कहलाती है

नारी अपनी अमिट कहानी क्यू न खुद बतलाती है
धर चंडी का रूप क्यू न अपना स्वरुप बचाती है
 


तारीख: 18.07.2017                                                        ललित






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