चार दिवारी में रहे
दुःख हजार सहे
दिल का दर्द
कभी ना किसी से कहे||
निरीह है निरर्थक है
निष्प्रयोजन निष्काम है
उसकी ही कृति में
होता ना उसका नाम है||
दया ममता संवेदना
सब उसकी ही खोज है
जीवन उसका समर्पित
दुनिया पर वो बोझ है||
जो छोड़कर लाचारी
लांघ देती चार दिवारी
पलकों पर बैठाने को
तैयार रहती दुनिया सारी||
रूप उसका मोहिनी
बातें उसकी मधुरस
काया देख यूँ लगता
ज्ञान रहा हो बरस||
उससे ही दिन है
उस से ही रात है
हर महफ़िल की शान
उसकी ही बात है||
वाह रे नारी
अजब तेरी लाचारी
जब जब तू जाती वारी
दुनिया से तब तू हारी
छोड़ दे जब तू लाचारी
क़दमों में होती दुनिया सारी