ओ पिता मेरे पिता

 
 पिता ..हमेशा आदर्श के 
मुल्लमें में बंधा शख्स... 
कभी - कभी दिखाई दे देती है
चिन्ता की लकीरें ,
संतोष की जगह पर कुछ क्षण
बाद आ जाती है


चेहरे पर स्थाई गंभीरता
के साथ   कठोरता .
उतावलापन तो उन्हे
छू तक नहीं गया ,
उनकी चाल में एक  
अदभुत धर्य औ शान्ति 
छलकती है ।


जब भी मैंने देखा 
उन्हे सागर की भाँति अनन्त
मगर सीमाओं में बँधा हुआ ,
उस सागर के गर्भ में कितनी 
हलचल समेटे हुए है कोई नहीं समझता ।


वो हँसी को भी जैसे भीतर से 
खींचकर ओठों पर सजाते हों ,
कभी - कभी मुस्कुरा देते है 
माँ को देखकर क्षण भर ।
हमेशा हमारी ख्वाइशों का 
पुलिंदा बाँधे घर लौटते है  ,....


हम सबकी खिलखिलाहट ही 
“ मनु ” उन्हे सुकून देती है।
उन्हे कभी शिकायत करते भी 
नहीं सुना मैनें , 
परन्तु वो अक्सर अपने
 अनजान ईशवर से घण्टों बातें करते 
रहते हैं हम सबको सुलाकर देर रात ....


हमारे साथ खेलते - खेलते खो जाते थे 
बचपन में और बताने लग जाते थे
अपने छुटपन में ....
अफसोस करते रहते हैं सोच -सोच कर 
गुजरे लम्हों को ...
सच कहूँ तो आज वो कुछ -कुछ
मुझमें  उतर आये ..क्योंकि उनके 
जाने के बाद अक्सर माँ कहती रहती है 
तु “उन" पर गया है ,तो सोचता हूँ माँ के 
“उनके" बारे में कि वो भी मेरी ही तरह
 दिखते होंगे कुछ -कुछ या पूरी तरह 
कहना मुशकिल है......

 

पर ये तय है हर सूरत - ए - हाल 
मैं उनके नक्शे कदम पर चलने की 
हर संभव कोशिश करूँगा ।
यही मेरे जीवन का आधार है नहीं 
मकशद कहो तो बेहतर होगा .. 
जीवन उनके बनाए उसूलों पे 
चलते हुए काट पाउँ ...


मुझे मालूम है ये बहुत मुशकिल है 
मगर नामुमकिन नहीं .....
अंत में प्रणाम उस वजूद को 
जिसने मेरे रूप को साकार 
किया ...मुझे आकार दिया ।
पुनः कोटि -कोटि वन्दन 
उस दिवंगत आत्मा को ..... 
     
 


तारीख: 12.08.2017                                     मनोज कुमार सामरिया -मनु









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