पहचान

इस शहर में आकर 35 बरस हो गये।
कोमल पौधा था , जब यहाँ लाया गया।
शैशव में ही जगह बदल गयी तो कुछ फर्क नहीं पड़ा
आज एक दरख्त है----उसकी अपनी पहचान और वजूद है। 
अपनी जड़ें जमा चुका है।


यहाँ के हर मौसम आबो हवा से परिचित है उसकी हर करवट से वाकिफ है।
लोगों को जानता है; उनके हिसाब से खुद को एडजस्ट भी करना सीख गया है।
लेकिन अब उसे यहाँ से जाना है। दूसरे शहर में बसना है जमना है उसके बाद अस्तित्व और पहचान बनाने की जद्दोजहत।
कैसे रोपूँगा अपनी जड़ें---मौसम मिट्टी!?
अजीब सा खौफ और हिचक सी लग रही है।
अनजान शहर, बस्ती ,लोग।


एक कश्मकश में लगा है मन
कभी खुद से उलझता तो खुद को ढाढस बँधाता।
भविष्य के गभॆ में क्यों झाँकता है?-जो होता है भले के लिए होता है--बार बार यही दोहराता।
मन का है खेला सब- मन भटकाता, वही चुपाता, वही बहलाता।


मन बँजारा-सीख है देता;
 न अटक तू ,अब चलाचल 
लिखा  कहीं अब दाना पानी-
कर भरोसा खुद पर अपने, करना है पूरे सब सपने
मजबूत बना जड़ों को अपनी- जमना होगा फिर आसान।
होंगे सब साथ फिर ,ना रहेगा कोई अनजान।
रख हौसला मन में अपने, कर इरादे फौलाद से अपने
मिट्टी आसमाँ पानी धूप, बनेंगे अपने यह भी खूब
फूटेंगी जब नयी जड़ें--
होगा सब आसान, बन जाएगी तेरी फिर ,एक नयी पहचान!!


तारीख: 20.10.2017                                    मुक्ता दुबे









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