मां बुनती हैं, ऊन से एक स्वेटर, और उसमें भरती हैं खूब सारा प्यार,
हर गांठ को अपने प्रेम और ममता की चाशनी में भीगो कर वो डालती हैं उसमें फंदे,
हर फंदे के साथ साथ प्रेम की गांठ ओर अधिक मजबूत होती चली जाती हैं,
पिता जी उसे बहुत मन से पहनते हैं सर्दी के मौसम में,
मगर फिर एक दिन वो ऊन का स्वेटर पुराना हो जाता है,
फिर उसे रख दिया जाता हैं घर के किसी कौने में,
फिर एक दिन अचानक मां को उसके ख्याल आता है,
मां जाती हैं और उसे अलमारी से निकालकर उसमें थोड़ा सा और कपड़ा जोड़कर
उसका पायेदान बना देती है,
प्रेम एक लम्बे सफर के बाद आखिरकार पैरों में आ ही गया,
मगर मुझे दुःख होता है कि मां भी पायेदान पर पैर रख कर निकल जाती हैं
जिसे उन्होंने खुद अपने हाथों से बुना था,
खैर, प्रेम कही ना कही उन पैरों को अपना मुकद्दर मानकर
उसी जमीन पर कई सालों से पड़ा हुआ है
मैं अभी उसी प्रेम को जी रहा हूं,
जिसमें मां भी नहीं हैं, पिता जी भी नहीं हैं, और वो प्रेम से बुना गया स्वेटर भी नहीं हैं
अगर कुछ बचा है तो वो मैं हूं शायद मैं वही पायेदान हूं.