अगर मैं आपसे कहूँ कि यह कविता मैंने नहीं लिखी, बल्कि मुझे सपने में एक करीबी दोस्त, जो एक कवि है, उसने यह कविता सुनाई – तो शायद आप विश्वास न करें।
मगर यह जादुई-सी बात सच में मेरे साथ सुबह के एक सपने में हुई, जब मेरे एक दोस्त ने यह कविता सुनाई। और उसके बाद आए एक-दो और सपनों के बावजूद, मैंने सपने में ही इस कविता को याद रखने की कोशिश की। नींद से जागते ही मैंने कलम उठाई और कागज़ पर लगभग पूरी याद की हुई कविता को लिख दिया और फिर उसे पूरा किया।
ऐसा अचंभा मेरे जीवन में आज तक नहीं हुआ। इसके क्या मायने हैं, मुझे नहीं पता, और इस पर कोई भरोसा करेगा भी या नहीं, यह भी मुझे नहीं पता।
पिता, अगर मिले मौक़ा फिर से, जीवन का धागा चुनने का,
तो बतलाओ, कौन सा जन्म तुम, चाहोगे फिर से बुनने का?
क्या वही, जहाँ अभावों की, हर रोज़ नयी एक दस्तक थी?
जहाँ देह तोड़ मेहनत के आगे, हर ख़्वाहिश बस सस्ती थी?
वो बचपन, जो धूल-धक्कड़ में, ज़िम्मेदारियों से लदा रहा, वो यौवन, जो संघर्षों की, हर आँच पे पल-पल खड़ा रहा?
जहाँ हर रोटी के टुकड़े पर, क़िस्मत से लड़ना पड़ता था, जहाँ हर सपने को आँखों में, डर-डर कर गढ़ना पड़ता था?
वो कच्चा आँगन, टूटी छत, वो बारिश में रिसती दीवारें,
क्या फिर से जीना चाहोगे, वो सब बेबस, थकी पुकारें?
या कोई और जन्म चाहोगे?
जहाँ धूप सुनहरी खिलती हो? जहाँ बचपन पंख लगाए उड़े, हर ख़्वाहिश पूरी मिलती हो?
जहाँ मेहनत हो, पर उसका फल, हाथों-हाथ नज़र आए, जहाँ सपने आँखों में पलते, और सच भी वो बन पाएँ?
जहाँ प्यार मिले, दुलार मिले, ना अभावों का साया हो, एक शांत, सुखी जीवन हो, जिसमें मन ना भरमाया हो?
पिता, तुम्हारी झुर्रियों में, मैंने पढ़ी हैं कितनी रातें, तुम्हारी ख़ामोशी में अक्सर, सुनी हैं कितनी अनकही बातें।
मैं जानता हूँ, शायद तुम कह दो, "जो जिया, वही सब अच्छा था," पर सच कहना, अगर चुनना हो, तो दिल क्या चाहेगा सच्चा सा?