सोम हो गए स्वप्न जीवन भर अमावस
पुनः झरता एकदा आलोक-पावस
जगत सीमातीत मरुस्थल-सा अनुर्वर
झाड़ियाँ हैं ठूंठ हैं या अस्थि-पंजर
स्रोत आशा के पुनः भीतर जगाएं
फिर अलक्षित क्षितिज से सन्देश आयें
हम हलाहल पान कर जो जल रहे हैं
खोज तो पीयूष-मधु की कर रहे
क्या हुआ हों पथ हमारे व्योम-विस्तृत
कर लें मन-पंछी बसेरा एक निर्मित