सपनों की उधेड़बुन

ऊन के नये गोले हैं, पर सपने वही पुराने हैं…
नया तरीका कोई सीखा दो, सपने वही बनाने हैं…

रंग बदल के लाई हूँ, पिछ्लो से कुछ बना नहीं…
बैठी देर सब काम छोड़, पर एक सिरा भी जुड़ा नहीं…

कब ओढ़ उड़ानें भरूँगी मैं, मन बहुत ललचाता है…
दिल बैठ बैठ सा जाता है, कोई अपना दिखा इठलता है…

सपनों के कंबल क्या मिलते हैं बने बनाए रंगीन सुनहरे?
इस उधेड़बुन की उलझन में, कहीं दिन ही कम ना पड़ जाएँ मेरे…

सपनों से भरी इन आखों को, हम बंद नहीं करेंगे हाँ...
जल्दी ना करना चलने की, जाना हो तुमको तो जाओ जहाँ…

बस बैठे यूँ ही ताकते हो, मुश्किल पर मेरी हँसते हो..
ज़रा हाथ बटा दो आकर के, इतनी ताक़त जो रखते हो…

खुद बुन के जो तैयार किया, उससे पहन ही जाऊँगी
वापस आई गर दुनिया में, तो फिर से नया बनाऊँगी...


तारीख: 09.06.2017                                                        ऋतु पोद्दार






नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है