शब्दों की गुत्थियाँ वही
मेरा तमतमाना
मेरा भुनभुनाना भी
एकदम वही
बीस साल पहले वाली ही हूँ मैं
पर तुम नहीं वही
है फ़र्क
फ़र्क है
तेरी झुर्रियों में
तेरे कमर की झुकाव में
तेरे हाथों की स्थिरता में
और तेरे अपनेपन की चादर के
झिझक भरी छिद्रों की त्रिज्या में
दूध पहले भी फेंका था
हाथ छोड़ खेलने भी गई थी
रिमोट टी वी का लपका था तुझसे
कई बार पहले भी
तुम हँस देते थे
बड़ी बदमाश है, कह देते थे
कभी तो लगा भी देते थे
जानदार शानदार थप्पड़
वो गूँज वहीं छूट गई
लुप्त भी हो गई
सन्नाटा शेष है
बस वही शेष है पूरे आँगन में
अब क्यूँ मना नहीं करते चैनल बदलने पर
अब पूछते तक नहीं
ये कौन दोस्त हैं, क्यों आए हैं
क्यूँ नहीं पता करते
रात देर से क्यूँ आई मैं
माना नज़र कमज़ोर हुई है
पर पकड़ मुझ पर
क्यूँ हुई ढीली वो?
माना दुखते हैं तुम्हारे पैर
पर दर्द यहाँ बहुत होता है
जब रोकते हो खुद को तुम
कुछ कहने पूछने से मुझसे
माना तुम्हारा ज़माना चला गया
पर ज़िन्दगी है तुममें बाकी
तुम ज़िंदा भर रहो
मेरे अहसान तले
कहीं शांत,चुपचाप
खुद ही समीकरण करते
ना खुल कर हँसते
ना फ़ूट फ़ूट कर रोते
फिर मेरी क्या भूमिका भला?
किलकारी से हुँकार तक संभाला मुझे
अब अपनी शिथिलता में सौभाग्य दो
राम-नाम मत भजो अंधेरे में कहीं
अभी तो प्रकृति लेकर आई है
तुम्हारे खेलने कूदने की उमर
फिर से