परिवार बढ़ते गए,
आँगन सिमटते गए,
छतों के ऊपर घर चढ़ते गए,
अब आँगन में धूप नहीं आती,
अब छतों पर लोग नही आते।
अब चूल्हे का धुआं नही दिखता,
न चक्की का शोर है,
माँ से पूछता हूं कभी,
बड़ी माँ के घर से अब,
तरकारी की खुशबू क्यूँ नही आती?
अब शायद पढ़ने-लिखने का जोर है,
बच्चे कैद है, गलियों में न शोर है।
अब हम बड़े हो रहे हैं,
अब हम घरों के ऊपर छत हो रहे हैं,
अब हम सभ्य हो रहे हैं।